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ले लिये। अन्तिम सब से छोटे एक साधु, जब कोल्हू पर लाकर खड़े किये गये, तब खन्धकाचार्य का हृदय दया से भर आया। उन्होंने पालक से कहा, कि-"महानुभाव ! पहले मुझे पेल डाल, जिसमें इस बाल-साधु की हत्या मुझे न देखनी पड़े । मेरा इतना कहना मान जा।" पालक प्रधान तो वह कार्य करना ही चाहता था, जिससे उन्हें दुःख पहुँचे। अतः उसने इनके कहने की तरफ ध्यान न देकर उन बालमुनि को कोल्हू में डलवाया और खन्धकाचार्य के देखते ही देखते उन्हें पेल डाला । सब मुनिगण, शुद्ध-भाव रखकर मरने से निर्वाणपद को प्राप्त होगये।
अब आचार्य की बारी आई । अन्तिम हत्या देखकर, इस समय उनकी नस-नस में क्रोध व्याप रहाथा। अतः अन्तिमसमय में उन्होंने यह इच्छा की, कि-"यदि मेरे जप-तप में कुछ शक्ति हो, तो मैं इस राजा, प्रधान तथा सारे देश का नाश करनेवाला होऊँ"। खन्धक मुनि भी कोल्हू में डालकर पेल डाले गये । कहा जाता है, कि परलोक में जाकर वे अग्निकुमार देव हुए । उन्होंने, दण्डक राजा का सारा देश जलाकर भस्म कर दिया। हरा-भरा और फूला-फला देश उजाड़ हो गया । अब भी वह स्थान दण्डकारण्य के नाम से प्रसिद्ध है।
खन्धकाचार्य के वे पाच-सौ शिष्य धन्य हैं, जिन्होंने मरने का ढङ्ग जाना।