Book Title: Hindi Granthavali
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
Publisher: Jyoti Karayalay

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Page 394
________________ २१ की शरण ग्रहण करता हूँ, सिद्ध की शरण ग्रहण करता हूँ, साधु की शरण ग्रहण करता हूं और केवली भगवान के कहे हुए धर्म की शरण ग्रहण करता हूं । बस, इतना बोलकर खन्धक मुनि ने ध्यान लगा लिया । राजसेवकगण, उनकी चमड़ी उतारने लगे । चमड़ी चरचर उतरने लगी, किन्तु मुनीश्वर अपने ध्यान से न डिगे । उन्होंने, अपने मन में किंचित भी बुरा - विचार न आने दिया और समता धारण किये रहे । यों करते-करते, उनके हृदय में समता की इतनी वृद्धि होगई, कि उसी स्थान पर उन्हें केवलज्ञान होगया । इधर, उनके सारे शरीर की चमड़ी उतार ली गई, अतः वे निर्वाण को प्राप्त होगये । इस हत्याकाण्ड के स्थान पर, चीलें उड़ने और मांस खींच - खींचकर खाने लगीं। इन चीलों में से एक ने खून से भीजी हुई मुँहपत्ती और ओगे को मांस जानकर उठा लिया । योगायोग से ऐसा हुआ, कि कुछ दूर उड़ने के बाद, ये दोनों चीजें उस चील के पैर से छूट गई और ठीक राजमहल की छत पर गिरीं । बहिन ने ज्यों ही इन चीजों को देखा, त्यों ही वह सब मामला समझ गई । उसके दुःख का पार न रहा । वह मूर्छा खाकर जमीन पर गिर पड़ी । होश आने पर उसे वैराग्य

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