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की शरण ग्रहण करता हूँ, सिद्ध की शरण ग्रहण करता हूँ, साधु की शरण ग्रहण करता हूं और केवली भगवान के कहे हुए धर्म की शरण ग्रहण करता हूं ।
बस, इतना बोलकर खन्धक मुनि ने ध्यान लगा लिया । राजसेवकगण, उनकी चमड़ी उतारने लगे । चमड़ी चरचर उतरने लगी, किन्तु मुनीश्वर अपने ध्यान से न डिगे । उन्होंने, अपने मन में किंचित भी बुरा - विचार न आने दिया और समता धारण किये रहे । यों करते-करते, उनके हृदय में समता की इतनी वृद्धि होगई, कि उसी स्थान पर उन्हें केवलज्ञान होगया ।
इधर, उनके सारे शरीर की चमड़ी उतार ली गई, अतः वे निर्वाण को प्राप्त होगये ।
इस हत्याकाण्ड के स्थान पर, चीलें उड़ने और मांस खींच - खींचकर खाने लगीं। इन चीलों में से एक ने खून से भीजी हुई मुँहपत्ती और ओगे को मांस जानकर उठा लिया । योगायोग से ऐसा हुआ, कि कुछ दूर उड़ने के बाद, ये दोनों चीजें उस चील के पैर से छूट गई और ठीक राजमहल की छत पर गिरीं ।
बहिन ने ज्यों ही इन चीजों को देखा, त्यों ही वह सब मामला समझ गई । उसके दुःख का पार न रहा । वह मूर्छा खाकर जमीन पर गिर पड़ी । होश आने पर उसे वैराग्य