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और खन्धक मुनि के पास पहुँचकर उनसे कहा, कि - " राजा का यह हुक्म है, कि तुम्हारे शरीर पर से जीते जी चमड़ी उतार ली जावे " । खन्धक मुनिवर ने उत्तर दिया, किवाह ! समता की कसौटी का यह कैसा सुन्दर-मौका मिला है । भाई ! तुम प्रसन्नतापूर्वक अपने राजा की आज्ञा का पालन करो । किन्तु मुझे यह बतला दो कि मैं किस तरह खड़ा रहूँ, जिसमें तुम्हें अपना कार्य करने में असुविधा न हो ? "
अमृत के प्रवाह की तरह मुनिराज की मीठी वाणी सुनते ही सेवकों के हाथ ढीले पड़ गये । किन्तु उन्हें तत्क्षण राजा के हुक्म की याद हो आई, अतः वे अपना कार्य करने को
तयार हुए ।
राजसेवकों ने अपनी फरसी तयार की । खन्धक मुनिराज शान्त-भाव से मन में बोले:
चत्तारि सरणं पवज्जामि |
अरिहन्ते सरणं पवज्जामि ।
सिद्धे सरणं पवज्जामि ।
साहू सरणं पवज्जामि ।
केवल पनतं धम्मं सरणं पवज्जामि ।
अर्थात् — मैं, चार की शरण ग्रहण करता हूँ । अरिहन्त