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पेड़ कुमार
इस समय मालवे का मांडवगढ़ एक ज़बरदस्त शहर था । वहाँ हजारों धनी-मानी लोग रहते थे, जो करोड़ों का व्यापार करते थे । पेथड़कुमार ने विचारा, कि मुझे माँडवगढ़ जाना चाहिये, वहाँ मैं आसानी से अपना निर्वाह कर सकूँगा । यों सोचकर, वे माँडवगढ़ आये ।
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यहाँ आकर, बाप-बेटे ने घी की दूकान कर ली। आस - पास के ग्रामों की गवलिनें घी बेंचने आती थीं, उनसे खरीदकर, उसे ये अपनी दूकान पर बेंचते थे । बाप-बेटा दोनों ही वचन के सच्चे और नीयत के अच्छे थे। उनकी दूकान पर चाहे बच्चा आवे या बुड्ढा, सब को एक ही भाव दिया जाता था । इसके अतिरिक्त, माल में वे कुछ मेल भी न करते थे । जैसा माल बतलाते थे, वैसा ही देते थे । इसी कारण थोड़े ही दिनों में उनकी अच्छी साख जम गई ।
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एक बार, एक गवलिन घी की मटकी लेकर पेथड़कुमार की दूकान पर आई और पूछा, कि – “ सेठजी ! आपको घी चाहिये क्या ? " । पेथड़कुमार ने घी लेकर देखा, तो वह बड़ा ही सुगन्धित और दानेदार था। उन्होंने गवलिन से कहा, कि – “हाँ, मैं लूँगा " । गवलिन ने अपना बर्तन पेथड़कुमार को सौंप दिया और वे उसमें से घी निकाल-निकालकर तौलने लगे । पेथड़कुमार उस बर्तन में से घी निकालते ही