Book Title: Haribhadra ka Aavdan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 9
________________ [4] जैन परम्परा के दर्शन - संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि ( विक्रम १२६५ ) के विवेक विलास का आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है । जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक इन छह दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय वैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है । मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया है 'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिव' -१३ यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र ६६ श्लोक प्रमाण है । जैन परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर ( विक्रम १४०५ ) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है । इश ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छह दर्शनों का भी उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। पं० सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके' । पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन संग्राहक ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय है । इस ग्रन्थ में मेरुतुरंग ने बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक इन छह दर्शनों को मोमांसा की है किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसो उदारता नहीं है । यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों १. समदर्शी आचार्य हरिभद्र पृ० ४७ । २. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० पं० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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