Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 22
________________ हरिभद्र के धर्म-दर्शन में क्रान्तिकारी तत्व : सम्बोधप्रकरण के संदर्भ में हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक हैकुसूमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर। उनके चिन्तन में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है। दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का विषय बने बिना नहीं रहते हैं। वे उदार हैं किन्तु सत्याग्रही भी । वे समन्वशील हैं किन्तु समालोचक भी । वस्तुतः एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों तत्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं। जब वह सत्य की शोध करता है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयता पूर्वक उसे स्वीकार करता है किन्तु दूसरी ओर असत्य को चाहे फिर वह भी उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके विरोधी के, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है। हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष का विशेष रूप से चर्चा की थी। अब मैं उनकी क्रान्ति धर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। - हरिभद्र के धर्म दर्शन के क्रान्तिकारी तत्व वैसे तो उनके सभी ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, धर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेष रूप से परिलक्षित होते हैं। जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को उजागर करते हैं तो सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए उसकी कमियों की भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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