Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 20
________________ अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है । मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म सम्प्रदाय अथवा विशेष वेषभूषा नहीं है। वस्तुतः जो व्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा मुक्त होगा। उनके शब्दों में. सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभावि अप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो ॥ अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम भेदों को लेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है । लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैं यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी गण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय उसमें भेद नहीं । वस्तुतः सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है । किन्तु हमारी दृष्टि उस परम तत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जब कि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः॥ अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद है । उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुतः यह नामों का विवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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