Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक पाश्र्वनाथ विद्याश्रम लघु ग्रन्थमाला १ 3 प्रधान प्रधान डासागर हरिभद्र का अवदान 6)卐EO डा० सागरमल जैन सच्चं लोगम्मि सारभूयं Jain Education letra intal पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान,वाराणसी Pivate aRersonause only Tuw.jadrenigraron Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान' -डॉ० सागरमल जैन भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी लेखनी से विपूल मात्रा में मौलिक एवं टीका साहित्य का सृजन किया है। अनुश्रुति है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वर्तमान में उनके द्वारा रचित लगभग ८४ ग्रन्थों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है। उन्होंने दर्शन, धर्म-साधना, योग-साधना, धार्मिक विधि-विधान, आचार, उपदेश कथाग्रन्थ आदि विविध विधाओं पर ग्रन्थों की रचना की है। उनका टीका साहित्य भी विपुल है । हरिभद्र उस युग के विचारक हैं, जब भारतीय चिन्तन एवं दर्शन के क्षेत्र में वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति प्रमुख बन गयी थी। प्रत्येक दर्शन स्वपक्ष के मण्डन और परपक्ष के खण्डन में अपना बुद्धि-कौशल दिखला रहा था । मात्र यही नहीं, धर्मों और दर्शनों में पारस्परिक विद्वेष और घृणा की भावना भी अपनी चरम सीमा पर पहँच चकी थी। स्वयं हरिभद्र के दो शिष्यों को भी इस विद्वेष-भावना का शिकार होकर अपने जीवन की बलि देना पड़ी थी। उस युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के प्रदेयों का और उनकी महानता का सम्यक् मूल्यांकन किया जा सकता है। हरिभद्र की महानता तो इसी में है कि उन्होंने शुष्क वाक्-जाल और घृणा एवं विद्वेष के इस विषम परिवेश में समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया। यद्यपि समन्वयशीलता, उदारता और समभाव के गुण हरिभद्र को जैनदर्शन की अनेकान्त दष्टि से विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने इन गुणों को जिस शालीनता के साथ अपनी कृतियों में एवं जीवन में आत्मसात किया है, वैसा उदाहरण स्वयं जैन परम्परा में भी विरल ही है। प्रस्तुत निबन्ध में हम उनकी इन्हीं विशेषताओं पर किञ्चित् विस्तार के साथ चर्चा करेंगे। ___ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवशान क्या है ? यह समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैं (१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण । १. भो० ल० भारतीय संस्कृति संस्थान में हरिभद्र सम्बन्धी संगोष्ठी में पठित । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्यधर्मो एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति । (३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं के सार तत्त्व और मूल उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न । (४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं इनकी मल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय का प्रयत्न । (५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन और उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन । (६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए भी धार्मिक एवं पौराणिक अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन । (७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं यक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो । (८) धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । (९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण । (१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उनके गुणों पर बल । अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई-लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है। इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों-यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीन काल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य परम्पराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है । स्वयं जैन परम्परा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। परिणामस्वरूप यह महान् ग्रंथ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहाँ से अलग कर परिपार्श्व में डाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] होते हैं, किंतु उनमें अन्य दर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत कहकर उनकी आलोचना भी करता है। भगवती में विशेष रूप से मंखलि-गोशालक के प्रसंग में तो जैन परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर देती है। ऋषिभाषित में जिस मंखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है, यहाँ यह चर्चा मैं केवल इस लिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की उदारदृष्टि का सम्यक् मल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परम्परा में अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान है। जैन दार्शनिकों में सर्व प्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दसवीं में योगविद्या, बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है । वे अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटोले व्यंग्य भी कसते हैं। वस्तुतः दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों का निराकरण करना ही था । सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं । साथ ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही हैं कि अन्य दर्शन एकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या-दर्शन हैं जबकि जैन दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन है। वस्तुतः वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती जेन १. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी पृ० ४० । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। उदाहरण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेव-स्तोत्र (४४) में निम्न श्लोक प्रस्तुत करते हैं भव-बीजांकूरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। यह श्लोक हरिभद्र के लोकतत्त्वनिर्णय में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है, यथा यस्य अनिखिलाश्च दोषा न संति, सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । वस्तुतः २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सजनर्मिता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन किया हो। ___ अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दृष्टियों से किया जाता है एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गये ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तो वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है। उदाहरण के रूप में स्याद्वाद और शन्यवाद के आलोचकों ने कभी भी उन्हें सम्यक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है, अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उसके सम्बन्ध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं। दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों की परम्परा और उसमें हरिभद्र का स्थान __ यदि हम भारतीय दर्शन के समग्न इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारो दृष्टि में हरिभद्र ही वे प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शनसंग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने की दृष्टि से किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं को थी। उनके ग्रन्थों में अपने विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है । जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं, किन्तु उनकी दृष्टि भी खण्डनपरक ही है । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपर्णता को सूचित करते हुए अनेकान्तवाद की स्थापना करना है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के शब्दों में (नय) चक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की दलीलों से हो सकता है। स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं।' नयचक्र को मूलदृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकांतवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की हो है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी दर्शन-संग्राहक नहीं लिखा गया । १. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १४ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] जैनेतर परम्पराओं के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में संदेह है । इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अतः किसी सीमा तक इसकी शैलो को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिममत का भी प्रथम मत से खण्डन करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह ' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार करता है । अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है । जैनेतर परम्पराओं में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान माधवाचार्य ( ई० १३५० ? ) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु 'सर्व दर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है । सर्वसिद्धान्तसंग्रह और 'सर्वदर्शनसंग्रह ' दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र बिना किसी खण्ड मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों ग्रन्थों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है । अतः इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है । वैदिक परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा स्थान माधव - सरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का आता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और अवैदिक - ऐसे दो भागों में बांटा गया है । अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध और जैन ऐसे तोन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं । इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है । अतः हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय जैसा उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है । वैदिक परम्परा के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का आता है । मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है । नास्तिक- अवैदिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] दर्शनों में वे छह प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश हआ है। आस्तिक-वैदिकदर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा का समावेश हुआ है। इन्होंने पाशुपत-दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार प्रस्थानभेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है। वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन प्रस्थानों के प्रस्तोता) सभी मनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे । चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान भेद में यत्किचित उदारता का परिचय प्राप्त होता है। किन्तु यह उदारता केवल वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तो सर्वदर्शन कौमुदीकार को भी इष्ट ही है। इस प्रकार दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यद्यपि वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने इष्ट दर्शन और विशेषरूप से वेदान्त को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। हरिभद्र के पश्चात जैन परम्परा में लिखे गये दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में अज्ञातकृतक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है। किन्तु इतना नश्चित है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है क्योंकि इसके मंगलाचरण में-"सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं" ऐसा उल्लेख है । पं० सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का ही अनुसरण करती है। अन्तर मात्र यह है कि जहां हरिभद्र का ग्रन्थ पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है । साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तृत भी है। १. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ । २. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ । . ' Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] जैन परम्परा के दर्शन - संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि ( विक्रम १२६५ ) के विवेक विलास का आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है । जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक इन छह दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय वैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है । मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया है 'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिव' -१३ यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र ६६ श्लोक प्रमाण है । जैन परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर ( विक्रम १४०५ ) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है । इश ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छह दर्शनों का भी उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। पं० सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके' । पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन संग्राहक ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय है । इस ग्रन्थ में मेरुतुरंग ने बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक इन छह दर्शनों को मोमांसा की है किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसो उदारता नहीं है । यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों १. समदर्शी आचार्य हरिभद्र पृ० ४७ । २. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० पं० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] के खण्डन के लिए लिखा गया है । एक मात्र इसको विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है । पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृतक एक कृति मुद्रित है ।" इसमें भी जैन, नैयायिक, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है । इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका । इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है । इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं । समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्म प्रवर्तकों के प्रति बहुमान दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते रहे हैं । प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिए अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है । स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन - यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है । हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं । फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी दर्शनों के प्रवकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं दार्शनिक के समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था अपितु उनके प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था। जैन और जैनेतर दोनों ही परम्परायें इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकीं । जैन परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा करते हैं तो न केवल उन परम्पराओं की मान्यताओं के प्रति, । १. षड्दर्शनसमुच्चय - सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० २० ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भो चुटोले व्यंग्य कस देते हैं। हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति के अपवाद नहीं रहे हैं। जैन आगमों की टोका में और धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चुटीले व्यंग्य कसते हैं किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता को प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धोरे-धोरे यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। इसके कुछ उदाहरण हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने को मिल जाते हैं। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेष शमनः स्वर्गसिद्धि सुखावहः ॥ अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रन्थ में कपिल को दिव्य-पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं-(कपिलो दिव्यो हि स महामुनिः-शास्त्रवासिमुच्चय २३७)। इसी प्रकार वे बद्ध को भी अर्हत, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं (यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत्-वही ४६५,४६६) । यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं-न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । शास्त्रवार्तासमुच्चय में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता को मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इस प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदर-भाव का परिचय दिया वह हमें जैन और जैनेतर किसो भो परम्परा में उपलब्ध नहीं होती। हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सारतत्त्व या सत्य को समझने का जा प्रयास किया है, वह भो अत्यन्त ही महत्त्व. पूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है। यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन को समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद का Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं। 'किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म माने गये हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के कारण जहाँ वे चार्वाक-दर्शन की समीक्षा करते हैं वही दूसरी ओर वे द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूतस्वभाववाद की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है।' पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मोमांसकों के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक एक पक्ष के रूप में परस्पर पूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मोमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का सुमेल हुआ है। ____ इसी प्रकार शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणाओं की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों ने इन अवधारणाओं का खण्डन ही किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी सार्थकता को स्वीकार करते हैं। हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह कि मनुष्य कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में आत्मविश्वास जागृत कर सके / पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं मानव मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुंचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर कर्तृत्ववाद की अवधारणा अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है / हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने 1. कर्मणो भौतिकत्वेन यद्व तदपि साम्प्रतम् / आत्मनो व्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् / / शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते / __ अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् / / शास्त्रवार्तासमुच्चय 95, 96 2. समदर्शी आचार्य हरिभद्र पृ० 53, 54 / 3. वही, पृ० 55 / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है ।" इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वतः अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भो है और 'कर्ता' भी है । इस प्रकार ईश्वर कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है । हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं किन्तु वे प्रकृति को जैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते हैं । वे लिखते हैं कि 'सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म - प्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य पुरुष और महामुनि हैं । शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपदेश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के निवारण के लिए ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होती । इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त करने के लिए ही है । यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी । इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार का १. ततश्चेश्वर कर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः ॥ ईश्वर: परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ॥ तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति || शास्त्रवार्तासमुच्चय २०३-२०५ परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः । २. स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ वही २०७ ३. प्रकृति चापि सन्न्यायात्कर्मंप्रकृतिमेव हि ॥ एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥ वही २३२-२३७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःसारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शन्यवाद-इन तीनों सिद्धान्तों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति को जगत के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा का प्रहाण हो । ____ अद्वैतवाद को समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सामान्य की दष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य है । इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है। अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है अतः वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे समीचीन ही स्वीकार करते हैं । ३ उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए न होकर उन दार्शनिक परम्पराओं को सत्यता के मूल्यांकन के लिए ही है। स्वयं उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध करना है। उपयुक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं। १. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः । शास्त्र० ४६४.४६५।। २. अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ।। वही ५५० ।। ३. ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग व्यवस्थितम् । तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ।। वही ५७९ ४. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥ वही २ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] अन्य दर्शनों का गम्भीर अध्ययन एवं उनकी निष्पक्ष व्याख्या __ भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराओं के गम्भीर अध्ययन को प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है। बादरायण, जैमिनोय आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के आधार पर भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं। यह सत्य है कि अनेकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारी पूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते. थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे । हरि भद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तटस्थ भाव से टोका भी लिखो। दिङ्नाग के 'न्याय प्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जल के योगसूत्र का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने उसी के आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशति आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इसप्रकार हरिभद्र जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं। जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव रखा, उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ भाव रखा है। अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते हैं। एक ओर वे अन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं। इस दृष्टि से उनकी दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं-(१) धूर्ताख्यान और (२) द्विजवदनचपेटा । धूर्ताख्यान में उन्होंने पौराणिक परम्परा में पल रहे अन्धविश्वासों Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण बाह से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा शंकर के द्वारा अपनी जटाओं में गंगा को समा लेना वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना । गणेश का पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पावतो का हिमालय का पूत्री होना आदि अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। हरिभद्र धाख्यान के कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपरोक्त बातें सत्य है तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकती। इस प्रकार धूर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं। इसी प्रकार द्विजवदनचपेटामें भी उन्होंने ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्या धारणाओं एवं वर्णव्यवस्था का सचोट खण्डन किया है। हरिभद्र सत्य के समर्थक हैं, किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं के वे कठोर समीक्षक भी हैं। तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को तर्क विरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्क से रहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है पक्षपातो न मे वीरे न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। -लोकतत्त्वनिर्णय ३८ उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करना चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए। यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपनेवाले दोषों के प्रति भी सचेष्ट हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए अपितु, सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रही वत निनीषति युक्ति तत्र यत्र तस्य मतिनिविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।। आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तक) का प्रयोग भी वहीं करता है "जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है जबकि अनाग्रही या 'निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है उसे स्वीकार करता है। इस प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की "पुष्टि या अपने विरोधी मान्यता के खण्डन के लिए न करके सत्य की -गवेषणा के लिए करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क ताकिक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक हैं। कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चरित्र (शील) को स्वीकार किया गया है। हरिभद्र भी धर्म साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हैं किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न ज्ञान को कुतर्क आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। वे कहते हैं कि जिन पर मेरी श्रद्धा का कारण राग भाव नहीं है अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे श्रद्धा के साथ बुद्धि जोड़ते हैं। किन्तु निरा तक भी उन्हें इष्ट नहीं है। वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुतः एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाली है । वह ज्ञान का अभिमान उत्पन्न करने के कारण भाव-शत्रु है। इस लिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क के वाक्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए।' वस्तुतः वे सम्यग्ज्ञान और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का सृजन करता है अतः उनकी दृष्टि में निरी ताकिकता आध्यात्मिक विकास में बाधक ही है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने धर्म के दो विभाग किये हैं-एक संज्ञान-योग और दूसरा पुण्य लक्षण । ज्ञान१. योगदृष्टि समुच्चय ८७ एवं ८८ । २. शास्त्रवार्ता समुच्चय, २० ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] योग वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक ज्ञान से भिन्न है । हरिभद्र अन्धश्रद्धा से मुक्त होने देने के लिए तर्क एवं युक्ति को आवश्यक मानते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में तर्क या युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए न कि खण्डन- मण्डनात्मक । खण्डनमण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ योगदृष्टि समुच्चय में की है' । इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते - हैं । यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्ड परक ग्रन्थ लिखे हैं । किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह किया है । हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति को चारित्रिकनिर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही है । जीवन में कषाय उपशान्त हो समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है । धर्म के नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छद्म जीवन की उन्होंने खुलकर निन्दा की है और - मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े हाथों लिया है उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है अध्यात्मं भावना ध्यानं समता वृति संक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ - साधनागत विविधता में एकता का दर्शन धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओ का भी उन्होंने सम्यक्• समाधान खोजा है। जिस प्रकार गीता में विविध देवों की उपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है उसी प्रकार हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है । वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं— उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न १. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६ - १०१ । — योगबिन्दु ३१ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है तत्त्वतः भेद नहीं होता है।' हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक तो साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों को भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है जिस प्रकार एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता के आधार पर और रोग की भिन्नता के आधार पर अलग-अलग औषधि प्रदान करता है उसी प्रकार महात्मा जन भी संसार रूपी व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्न-भिन्न विधियाँ बताते हैं। वे पुनः कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। वस्तुतः विषय वासनाओं से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्न चिह्न लगाना अनुचित ही है। वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म साधना के क्षेत्र में बाह्य आचारगत भिन्नता या उपास्य को नामगत भिन्नता बहुत ही महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यही है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी । उनको दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है-ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्क वादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव ॥ १. योगदृष्टि समुच्चय १०७, १०८, १०९ । २. चित्रातु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः । यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ।।-योगदृष्टिसमुच्चय १३४ ३. यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपितत्त्वतः ।।-योगदृष्टिसमुच्चय १३८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है । मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म सम्प्रदाय अथवा विशेष वेषभूषा नहीं है। वस्तुतः जो व्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा मुक्त होगा। उनके शब्दों में. सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभावि अप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो ॥ अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम भेदों को लेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है । लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैं यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी गण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय उसमें भेद नहीं । वस्तुतः सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है । किन्तु हमारी दृष्टि उस परम तत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जब कि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः॥ अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद है । उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुतः यह नामों का विवाद Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्ण या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों की यह विवाद निरर्थक हो जाती है । वस्तुतः आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है स्वरूपगत भिन्नता नहीं । वस्तुतः जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति से वंचित हो जाता है। वे कहते हैं कि जो उस परम तत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्द-गत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक उदार चेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ट आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है । अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं। निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोष संस्थान आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र के धर्म-दर्शन में क्रान्तिकारी तत्व : सम्बोधप्रकरण के संदर्भ में हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक हैकुसूमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर। उनके चिन्तन में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है। दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का विषय बने बिना नहीं रहते हैं। वे उदार हैं किन्तु सत्याग्रही भी । वे समन्वशील हैं किन्तु समालोचक भी । वस्तुतः एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों तत्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं। जब वह सत्य की शोध करता है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयता पूर्वक उसे स्वीकार करता है किन्तु दूसरी ओर असत्य को चाहे फिर वह भी उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके विरोधी के, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है। हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष का विशेष रूप से चर्चा की थी। अब मैं उनकी क्रान्ति धर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। - हरिभद्र के धर्म दर्शन के क्रान्तिकारी तत्व वैसे तो उनके सभी ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, धर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेष रूप से परिलक्षित होते हैं। जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को उजागर करते हैं तो सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए उसकी कमियों की भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म मार्ग से रहित हैं।' मात्र बाहरी क्रिया काण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म तत्त्व की गवेषणा हो, दूसरे शब्दों में जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और पाने का प्रयास हो। जहाँ परमात्म तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वहाँ धर्म-मार्ग नहीं है। वे कहते हैं जिसमें परमात्म तत्त्व की मार्गणा है-"परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग तो मुख्य मार्ग है । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हए लिखते हैं-जहाँ विषय वासनाओं का त्याग हो, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों से निवृत्ति हो, वही तो धर्म मार्ग है। जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है । वस्तुतः धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र की यह पीड़ा मन्तिक है । जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ घणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे धर्म कहना धर्म की विडम्बना है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए अन्य कुछ अर्थात् अधर्म ही है। विषय वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधि. कार की वस्तु मान कर यह कहते हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहाँ तक कह १. मम्गो मग्गो लोए भणं ति, सव्वे वि मग्गणा रहिया । -सम्बोधप्रकरण १।४ पूर्वाधं । २. परमप्प मम्गणा जत्थ तम्मग्गो मक्ख मग्गति ।। -सम्बोधप्रकरण १।४ उत्तरार्ध ३. जत्थ य विसय कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो। -वही, १५ पूर्वार्ध Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] देते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है -- जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई * । वस्तुतः उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भांति ही अपने चरम सीमा पर थे - यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है अपितु उनके एक क्रांतदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है । उन्होंने जैन परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों में विभाजित कर दिया 5 ― ( 1 ) नाम धर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है, किन्तु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है । वह धर्म तत्त्व से रहित मात्र नाम का धर्म है । (२) स्थापना धर्म -- जिन क्रिया काण्डों को धर्म मान लिया जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुतः धर्म नहीं हैं । भावना रहित मात्र क्रिया काण्ड स्थापना धर्म है । (३) द्रव्य धर्म - आचार-परम्पराएं, जो कभी धर्म थीं, या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं । सत्व शून्य अप्रासंगिक बनी धर्म परम्पराएँ ही द्रव्य धर्म हैं । (४) भाव धर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा - समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भाव धर्म है । हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भाव धर्म को ही प्रधान मानते ४. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभाव भाविअप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥ - वही, १1३ नामाई चउप्पभेओ भणिओ । * – वही, १1५ ( व्याख्या लेखक की अपनी है) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध से घत प्रकट होता है उसी प्रकार धर्म मार्ग के द्वारा दूध रूपी आत्मा घत रूप परमात्म तत्त्व को प्राप्त होता है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भावगत धर्म है वही विशुद्धि का हेत है । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० गाथाओं में, आत्म शुद्धि निमित्त जिन पूजा का और उसमें होने वाली अशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म-विशद्धि नहीं होता है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है । वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मुल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकेषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनका क्रान्तर्मिता है। हरिभद्र के युग में जैन परम्परा में चैत्यवास का विकास हो चुका था।अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला वर्ग जिन पूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर रहा था अपितु जिन, द्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी विषय वासनाओं की पूर्ति में उपयोग कर रहा था। जिन प्रतिमा और जिन मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान भूमि या साधना भूमि न बनकर भोग भूमि बन रहे थे। हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के ६. तककाइ जोय करणा खोरं पयडं घयं जहा हज्जा । ~~~वही, १७ ७. भावमयं तं मन्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया । -वही, ११११ पूर्वाद्ध ८. तम्मि य पढमे सुद्धे सव्वाणि तयणुसाराणि । -वही, १।१० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] । लिए यह सब देख पाना सम्भव नहीं था अतः उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम चलाने का निर्णय लिया । वे लिखते हैं-द्रव्य पूजा तो गृहस्थों के लिए है, मुनि के लिए तो केवल भाव पूजा है, जो केवल मुनि वेशधारी है मुनि आचार का भी पालन नहीं करता है, उसके लिए भी द्रव्य- पूजा जिन-प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है ( सम्बोधप्रकरण १।२७३ ) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा पूजा आदि कार्यों में उलझने पर मुनि वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था । यति संस्था के विकास से उनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रहा है तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन द्रव्य को अपनी वासना पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं तथाकथित भ्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं -- जो श्रावक जिन प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिन द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा भक्षण करते हैं वे क्रमशः भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने वाले और अनन्त संसारी होते हैं । इसी प्रकार जो साधु जिन द्रव्य का भोजन करता है वह प्रायश्चित्त का पात्र है । वस्तुतः यह सब इस तथ्य का भी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासना पूर्ति का माध्यम बन रहा था । अतः हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिए उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया । 10 सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन साधुओं का जो चित्रण किया है वह भी एक ओर जैन धर्म में साधु जीवन के नाम पर जो कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी ९. वही, १९९ - १०४ १०. वही, १1१०८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] वे अपनी समालोचना के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे । करते , तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष हुए वे लिखते हैं कि जिन प्रवचन में पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछंद ( स्वेच्छाचारी ) - ये पाँचों अवंदनीय हैं । यद्यपि ये लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं है। मुनि वेश धारण करके भी ये क्या क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु गुर्व्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अन्तर्गत १७१ गाथाओं में विस्तार से करते हैं । इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना तो सम्भव नहीं है । फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय देने के लिए कुछ विवरण तो दे देना भी आवश्यक ही है । वे लिखते हैं ये मुनि वेशधारी तथाकथित भ्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाये गये भोजन को स्वीकार करते हैं । भिक्षाचर्या नहीं करते हैं । आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमण के जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं । कौतुक कर्म, भूत- कर्म, भविष्य फल एवं निमित्त शास्त्र के माध्यम से धन संचय करते हैं । ये घृत- मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं सूर्य-प्रमाण भोजी होते हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं। न तो साधु-समूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं । 11 फिर ये करते क्या हैं ? हरिभद्र लिखते हैं, सवारी में घूमते हैं, अकारण कटि वस्त्र बांधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपाधि (सामग्री) का प्रतिलेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, फल और पेय ग्रहण करते हैं । भोज समारोहों में जाकर सरस आहार ग्रहण करते हैं, भोजन प्राप्ति के लिए लोगों की (झूठी ) प्रशंसा करते हैं । जिन प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन आदि कर्म करते हैं । नित्य ११. वही, २१०, १३, ३२, ३३, ३४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७ ] दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं। विपुल मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, विस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं। स्त्रियों के समक्ष गीत गाते हैं। आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। लोक प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण धारण करते हैं। चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते है, जिन मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सूवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं। मृतक-कृत्य निमित्त जिन पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) करवाते हैं। धन प्राप्ति के लिए गहस्थों के समक्ष अंग सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदि बलि आदि करते हैं। पाठमहोत्सव रचाते हैं। व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुण गान कर. घाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकायें केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के भी विक्रता हैं। ऐसे आयिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य संग्राहक उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्व परायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं । ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत मात्र शरीर को कष्ट और कर्म बन्धन होता है । वस्तुतः जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हई माला को कोई भी धारण नहीं करता है वैसे ही ये भी अपूज्य हैं14 । हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को फटकारते हुए कहते हैं यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर १२. वही, २।३४, ३५. ३६, ४२, ४६, ४९, ५०, ५२, ५६, ५७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६२-७४ ८८.९२ १३. वही, २२० १४. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कोरते सोसे । पासत्याइठाये वट्टमाणा इह अपुज्जा ।--वही, २।२२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] 5 गृहस्थ वेश क्यों नहीं धारण कर लेते हो ? अरे गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी किन्तु मुनि वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे । यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य हो सकता है जो अपने सहवगियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके । जैसा मैंने अपने पूर्व लेख में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे अपनी विरोधी दर्शन परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि सुवैद्य जैसे उत्तम विशेषणों से सम्बोधित करते हैं । किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते हैं - विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी अधार्मिक हैं । ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है 16 ऐसे दुश्शील, साधुः पिशाचों को जो भक्ति पूर्वक वन्दन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है " ? अरे इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष मार्ग के वैरी, आज्ञा भ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो । अरे देव द्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे इन अधर्म और अनीति के पोषक अनाचार का सेवन करने वाले और साधुका के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या द्व ेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद- प्रायश्चित्त होता है' 1 हरिभद्र पुनः कहते हैं - जिनाज्ञा का अप१५. जइ चरिउ नो सक्को सुद्ध जइलिंग महवपूयट्ठी । तो गिहिलिंग गिण्हे नो लिंगी पुणारहिओ ! - वही, १२७५ 17 १६. एयारिसाण दुस्सीलयाण साहुपिसायाण मत्ति पूव्वं । जे वंदणनमसाइ कुव्वंति न महापावा ? वही, १।११४ १७. सुहसीलाओ स्वछंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स । आणाभट्टाओ बहुजणाओ मा भणह संवृत्ति || देवा दव्वभक्खण तप्परा तह उमग्गपक्खकरा । साहु जणाणपओसं कारिणं माभणह संघं ॥ अहम्म अनीई अणायार सेविणो धम्मनीइं पडिकूला । साहुपभिइ चउरो वि बहुया अवि मा भणह संघं ॥ असंघ संघ जे भणति रागेण अहव दोसेण । छेओ वा मूहत्तं पच्छित्तं जायए तेसि । वही, १।११९, १२०, १२१. १२३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] लाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह है, आक्रोश है। वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत करो अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप ही धमिल हो जायेगा। वे कहते हैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाये तो नीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। वस्तुतः हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है क्योंकि दुराचारियों के सानिध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं जो जिसकी मित्रता करता है तत्काल वैसा हो जाता है तिल जिस फूल में डाल दिये जाते हैं, उसी की गन्ध के हो जाते हैं । हरिभद्र इस माध्यम समाज को उन लोगों से सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डाले अधर्म में जीते हैं। क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी समाज के लिए अधिक खतरनाक हैं । आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है उसी प्रकार सुश्रावक के लिए हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है । दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सानिध्य तो जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है। 1 । १८. गब्भपवेसो वि वरं भद्दवरो नरयवास पासो वि । ___ मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वि ॥ ... वही २।१३२ १९. वही, २।१०३ २०. वही, २।१०४ २१. वेसागिहेसु गमणं जहा निसिद्ध सुकुल बहुयाणं । तह हीणायार जइ जण संग सड्ढाण पडिसिद्ध ।। परं दिदि विसो सप्पो वरं हलाहलं विसं । हीणायार अगीयत्थ वयण पसंगं खु णो भद्दो ।। -वही, श्रावक धर्माधिकार २,३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे। वे लोगों के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है । वक्र जडो का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन है। (यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि व्रत धारण ही नहीं करेगा) तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है हम क्या करें22 । उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन साधारण कह रहा था कि कुछ भी हो वेश तो तीर्थंकर प्रणीत है अत: वन्दनीय है। हरिभद्र भारी मन से मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ। किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है अतः हरिभद्र का इस पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है। सम्भवतः जैन परम्परा में यह प्रथम अवसर था जब जैन समाज के तथा कथित मुनि वर्ग को इतने स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं दुःखी मन से कहते हैं-हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अच्छा है, अरे व्याधि और मत्यु भी श्रेष्ठ है किन्तु इन कुशीलों का सान्निध्य अच्छा नहीं है। अरे (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ भी अच्छा हो सकता है, किन्तु (अपनी ही परम्परा के) इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही अच्छा नहीं है। क्योंकि हीनाचारी ही तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो शील रूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं । 24 वस्तुतः इस कथन के पीछे आचार्य की एक २२. वही, २१७७-७८ २३. बाला वंयति एवं वेसो तित्थंकराण एसोवि । नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमो॥ .."वही, २१७६ २४. वरं वाही वरं मच्चू वरं दरिद्दसंगमो। वरं अरण्णेवासो य मा कुसीलाण संगमो ।। हीणायारो वि वरं मा कुसीलाण संगमो भद्द। जम्हा हीणो अप्प नासइ सव्वं हु सील निहिं ।। -वही, २।१०१-१०२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में ही जानते हैं अतः उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं आती है जितनी जैन मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने वाले के सम्पर्क से। क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर व्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जायेगा। यदि सद्भाग्य से अश्रद्धा हुई तो वह जिन प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि सामान्य जन तो शास्त्र नहीं उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता है) फलतः उभय तो सर्वनाश का कारण होगी। अतः आचार्य हरिभद्र बारबार जिन शासन रसिकों को निर्देश देते हैं-ऐसे जिनशासत के कलंक शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो। क्योंकि ये तुम्हारे जीवन, चरित्रबल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे । हरिभद्र को जिन शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं अपने ही लोगों से अधिक लगा । कहा भी है इस घर को आग लगी घर के चिराग से। वस्तुतः एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य उद्देश्य था जैन संघ में उनके युग में जो विकृतियाँ आ गयी थीं, उन्हें दूर करना । अतः उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता से देखा। जो सच्चे अर्थ में समाज सुधारक होता है, जो सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियों को खोजता है। हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है , क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता है। उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः प्रतिष्ठित करना। हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को अपनी दृष्टि में रखा है। ___ उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव, गुरु, धर्म, श्रावक आदि का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है । यद्यपि इस निबन्ध की अपनी सीमा है अतः हमें अपने विस्तृत Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] विवेचन के मोह का संवरण करना ही होगा । हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना की है। हम उसके विस्तार में न जार संक्षेप में यही कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पंच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परिष जयी, शुद्धाचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, वही सुगुरु है " । 26 हरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की भाँति प्रत्येक गुरु के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था, जो उन्हें अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता था । श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु मनता था - जैसा कि आज भी देखा जाता है । हरिभद्र ने इस परम्परा में साम्प्रदायिकता के दुराभिनिवेश के बीज देख लिये थे । उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे । समाज विभिन्न छोटे-छोटे वर्गों में बंट जाएगा । इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा यह था गुणपूजक जैन धर्म व्यक्तिपूजक बन जायेगा और वैयक्तिक रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद भी एक विशेष वर्ग की एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी । युग-द्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से निर्देश दिया - श्रावक का कोई अपना और पराया गुरु नहीं होता है, जिनाज्ञा के पालन में निरत सभी उसके गुरु हैं । काश; हरिभद्र के द्वारा कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है । २५. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार । इसमें ३७ २ गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है । २६. नो अपना पराया गुरुणो कइया विहुति सड्ढाणं । जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वन्निया गुरुणो | ...वही, गुरुस्वरूपाधिकारः ३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र की क्रान्तदशी दृष्टि : धूर्ताख्यान के संदर्भ में पूर्व निबन्ध में मैंने जैन परम्परा में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं धर्म के नाम पर होने वाली आत्म प्रवंचनाओं के प्रति हरिभद्र के क्रान्तिकारी अवदान की चर्चा सम्बोधप्रकरण के आधार पर की थी। इस निबन्ध में मैं अन्य परम्पराओं में प्रचलित अन्धविश्वासों की हरिभद्र द्वारा की गई शिष्ट समीक्षा को प्रस्तुत करूंगा। हरिभद्र की क्रान्तदर्शी दृष्टि जहाँ एक ओर अन्य धर्म एवं दर्शनों में निहित सत्य को स्वीकार करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी अयुक्तिसंगत कपोल-कल्पनाओं की व्यंगात्मक शैली में समीक्षा भी करती है । इस सम्बन्ध में उनका धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ की रचना का मुख्य उद्देश्य भारत (महाभारत), रामायण और पुराणों की काल्पनिक और अयुक्तिसंगत अवधारणाओं की समीक्षा करना है। यह समीक्षा व्यंगात्मक शैली में है। धर्म के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या विश्वास युगों से रहे हैं, फिर भी पुराण-युग में जिस प्रकार मिथ्या कल्पनाएँ प्रस्तुत की गई-वे भारतीय मनीषा के दिवालियेपन की सूचक सी लगती हैं। इस पौराणिक प्रभाव से ही जैन परम्परा में भी महावीर के गर्भ परिवर्तन, उनके अंगूठे को दबाने मात्र से मेरु कम्पन जैसे कुछ चमत्कारिक घटनाएं प्रचलित हुईं। यद्यपि जैन परम्परा में भी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की रानियों की संख्या एवं उनकी सेना की संख्या, तीर्थंकरों के शरीर प्रमाण एवं आयु आदि के विवरण सहज विश्वसनीय तो नहीं लगते हैं, किन्तु तार्किक असंगति से युक्त नहीं हैं। सम्भवतः यह सब भी पौराणिक परम्परा का प्रभाव था जिसे जैन परम्परा को अपने महापुरुषों की अलौकिकता को बताने हेतु स्वीकार करना पड़ा था; फिर भी यह मानना होगा कि जैन परम्परा में ऐसी कपोल-कल्पनायें अपेक्षाकृत रूप में बहुत ही कम हैं । साथ ही महावीर के गर्भ परिवर्तन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] की घटना, जो मुख्यतः ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल की हैं और पौराणिक यूग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता का पुट भी अधिक नहीं है। गर्भ परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसमें भी आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है अविश्वसनीय और आप्राकृतिक रूप से जन्म लेने का जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है जबकि पुराणों में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं। जैन परम्परा सदैव तर्क प्रधान रही है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ परि. वर्तन की घटना को भी उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया। हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं उनका स्पष्ट कथन है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दे दिया है और कपिल आदि ऋषियों दे हमारे धन का अपहरण नहीं किया है अतः हमारा न तो महावीर के प्रति राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष है। जिसकी भी बात यूक्ति संगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं। जैन परम्परा के अन्य आचार्यों के समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप के निर्णय के लिए क्रमशः वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है उसे स्वीकार करने की बात कहते हैं। जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षतः देव या आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं। वे यह नहीं कहते हैं कि विष्णु, ब्रह्मा एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं। वे तो स्वयं ही कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जो समस्त गुणों से युक्त है वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ।' उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल कल्पनाओं के आधार पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं १. लोकतत्वनिर्णय ३२-३३ २. योगदृष्टिसमुच्चय Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया है कि उससे न केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु वे जन साधारण की अश्रद्धा का कारण बनते हैं । धूर्ताख्यान के माध्यम से हरिभद्र ऐसे अतर्कसंगत अंधविश्वासों से जन-साधारण को मुक्त करना चाहते हैं जिनमें उसके आराध्य और उपास्य देवों को चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के रूप में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वायु, अग्नि और धर्म का कुमारी एवं बाद में पाण्डु पत्नी कुन्ती से यौन सम्बन्ध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप से यौन सम्बन्ध स्थापित करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी-जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न होना आदि कथानक इन देवों की गरिमा को खण्डित करते हैं। इसी प्रकार हनुमान का अपनी पूंछ से लंका घेर लेना अथवा पूरे पर्वत को उठा लाना, सूर्य और अग्नि के साथ सम्भोग करके कुन्ती का न जलना, गंगा का शिव की जटा में समा जाना, द्रोणाचार्य का द्रोण से, कर्ण का कान से, कीचक का बांस की नली से एवं रक्त कुण्डलिन् का रक्त बिन्दु से जन्म लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति शिवलिंग का विष्णु द्वारा अन्त न पाना, किन्तु उसी लिंग का पार्वती की योनि में समा जाना, जटायु के शरीर को पहाड़ के समान मानना, रावण द्वारा अपने सिरों को काटकर महादेव को अर्पण करना और उनका पुनः जुड़ जाना, बलराम का माया द्वारा गर्भ परिवर्तन, बालक श्री कृष्ण के पेट में समग्र विश्व का समा जाना, अगस्त्य द्वारा समुद्र पान और जह्वाण के द्वारा गंगापान करना, कृष्ण द्वारा गोवर्धन उठा लेना आदि पुराणों में वणित अनेक घटनाएं या तो उन महान् पुरुषों के व्यक्तित्व को धूमिल करती हैं या आत्म विरोधी हैं अथवा फिर अविश्वसनीय हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णतः मान्य हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भपरिवर्तन को कैसे अविश्वसनीय कह सकते हैं । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि हरिभद्र धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय घटनाओं का उल्लेख करवा कर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते हैं कि यदि भारत, रामायण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] आदि में घटित उपर्युक्त घटनायें सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है। हरिभद्र द्वारा व्यंगात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अंधविश्वासों को नष्ट किया जाये और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था उसका पर्दाफाश किया जाये। उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण गोपियों के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता गधा के साथ अपना रोमांस चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी परम्परा के श्रमण वेशधारी दुश्चरित्र कूगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रकार धूख्यिान में वे ब्राह्मण परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत बड़ा अन्तर है। सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि धर्ताख्यान में व्यंगात्मक शैली में। इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक दष्टि छिपी हई है। हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना होता है तो सीधे कह देते हैं, किन्तु जब दूसरों को कुछ कहना होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते हैं । हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंगपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते हैं और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते हैं। दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह नहीं है मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और निष्कलंक हो। धूर्ताख्यान में उन्होंने उन सबकी समालोचना Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] की है जो अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल करते हैं। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया। हरिभद्र को इस बात से भी आपत्ति है कि हम अपने आराध्य को सपत्नी और शस्त्रधारी रूप में प्रस्तुत करें क्योंकि ऐसा मानने पर हममें और उसमें कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक प्रश्न चिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपाय) की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी। अन्य परम्पराओं के देव और गुरु के सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंगात्मक शैली जहाँ पाठक को चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है। हरिभद्र सम्बोधप्रकरण में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी गुरु और दूसरों को पीड़ा पहचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक स्वरूप को विकृत करना है। अतः हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना होगा। इस प्रकार हरिभद्र धूर्ताख्यान में जनमानस को अंधविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास कर अपने क्रान्तदर्शी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र के धूर्ताख्यान का मूल स्रोत हरिभद्र के धूर्ताख्यान पर चिन्तन करते समय यह विचार उत्पन्न हुआ कि हरिभद्र ने यह आख्यान कहाँ से ग्रहण किया। धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक अध्ययन में प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने यह तो विस्तार से चर्चा की है कि हरिभद्र के इस प्राकृत धूर्ताख्यान का संघतिलक का संस्कृत धूर्ताख्यान और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में लिखित धूर्ताख्यान पर पूरा प्रभाव है, मात्र यही नहीं उन्होंने यह भी दिखाया है कि अनेक आचार्यों द्वारा लिखित धर्म परीक्षाएँ भी इसी शैली से प्रभावित हैं। फिर भी वे इसका आयस्रोत नहीं खोज पाये। उन्होंने अभिधानराजेन्द्र में उपलब्ध सूचना के आधार पर यह तो सूचित किया है कि इसके कुछ पात्रों के नाम निशीथचूर्णी में हैं। किन्तु उस समय अप्रकाशित होने से निशीथचूर्णी उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाई थी अतः वे इस सम्बन्ध में ;धिक कुछ नहीं बता सके। मैंने इसके आद्यस्रोत को जानने की दष्टि से निशीथची देखना प्रारम्भ किया और संयोग से निशीथची के प० १०२ से १०५ के बीच मुझे यह पूरा कथानक मिल गया। मात्र यही नहीं निशीथभाष्य में भी इसका तीन गाथाओं में संक्षिप्त निर्देश है। क्योंकि अभी तक विद्वान् हरिभद्र को विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र और निशीथचूर्णी के कर्ता जिनदास से परवर्ती ही मानते हैं अतः प्रथम दृष्टि में इस आख्यान का मूल स्रोत निशीथभाष्य और निशीथची को माना जा सकता है। यद्यपि भाष्य में मात्र तीन गाथाओं में इस आख्यान का संकेत है, जब कि चूर्णी चार पृष्ठों में इसका विवेचन प्रस्तुत करती है। भाष्य इसका आदि स्रोत नहीं माना जा सकता क्योंकि भाष्य तो इस आख्यान का मात्र संदर्भ देता है, यथा सस-एलासाढ-मूलदेव-खंडा य जुण्णउज्जाणे । सामत्थणे को भत्तं, अक्खातं जो ण सद्दहति ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। वणगयपाटण कुंडिय, छम्मास हत्थिलग्गणं पुच्छे । रायरयग मो वादे, जहिं पेच्छइ ते इमे वत्था ॥ भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भाष्यकार को संपूर्ण कथानक, जो कि चूर्णी और हरिभद्र के धूर्ताख्यान में है, पूरी तरह ज्ञात है; वह मषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तत करता है। यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का आद्यस्रोत नहीं हो सकता है। भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान संदर्भ रूप में आये हैं उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है अतः यह निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है । चूर्णी तो स्वयं भाष्य पर टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में आख्यान आया है अतः यह भी निश्चित है कि चूर्णी भी इस आख्यान का मूल स्रोत नहीं है। .पुनः चूर्णी के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट लिखा है - सेसं धुत्तावखाणंगाणुसारेण (पृ० १०५)। अतः निशीथभाष्य और चूर्णी इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते हैं। किन्तु हमें निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई जानकारी नहीं हैं, जिसमें यह आख्यान आया हो। ___ जब तक अन्य किसी आदि स्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है, तब तक क्यों नहीं हरिभद्र के धर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत मौलिक रचना माना जाये । किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार और चूर्णीकार दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हई है वह खण्डित हो जायेगी। यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों, उनके ग्रन्य लघुक्षेत्रसमासवृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सम्वत् १०५५ विक्रम सम्वत् ५८५ और ईस्वी सन् ५२७ में माना जाता है तथा पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास का पूर्ववर्ती भी माना गया है । हरिभद्र की स्वर्गवास तिथि के सन्दर्भ में मेरे शोध सहायक डा० शिवप्रसाद ने मेरे द्वारा संकेतित इसी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] तथ्व के आधार पर पुनर्विचार किया है। अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व मानकर उनकी कृतियों पर विशेष रूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूल स्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती रचना या लोक परम्परा में खोजें। यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे वह निशीथचूर्णी का हो या हरिभद्र का स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व की रचना नहीं है । क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रति, पुराण, भारत और रामायण का उल्लेख करते हैं। हरिभद्र ने तो एक स्थान पर विष्णु पुराण (भारत के) अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख किया है अतः निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा गया होगा। उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार भारत और रामायण का उल्लेख करता है। अनुयोगद्वार की विषयवस्तु से ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग ५वीं शती की रचना है। धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है महाभारत नहीं। अतः इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की पूर्व सीमा ईसा की ४ थी या ५वीं शती से आगे नहीं जा सकती है । पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान के आधस्रोत की अपर अन्तिम सीमा इनके पश्चात् नहीं हो सकती है। इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का उत्तरार्ध हो सकता है। अतः धूर्ताख्यान का आद्यस्रोत ईसा की ५वीं से ७वीं शती के बीच का है। यदि हरिभद्र ही इसके मौलिक रूप में लेखक हैं तो फिर उनका समय विक्रम संवत् ५८५ मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 200 पाश्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी के लघु प्रकाशन 1. अहिंसा की सम्भावनायें-डा० सागरमल जैन (1980) 2. जैन साहित्य और शिल्प में बाहुबलि-डा० सागरमल जैन एवं डा० मारुतिनन्दन तिवारी (9982) 3. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि काव्याञ्जलि-पं० बेचरदास दोशी (1981) 4. जैन साहित्य के विविध आयाम (प्रथम खण्ड) सम्पादक डा० सागरमल जैन (1981) 5. जैन आचार में इन्द्रियदमन की मनोवैज्ञानिकता डा. रतनचन्द जैन (1981) 6. जैनदर्शन में प्रमाण-डा० वशिष्ठनारायण सिन्हा(१९८१:०० 7. बौद्ध एवं जैन अहिंसा का तुलनात्मक अध्ययन डा० भाग चन्द जैन (1981) 8. नैतिकता का आधार-जगदीश सहाय (1981) 9. पर्युषण पर्व : एक विवेचन -डा० सागरमल जैन(१९८३) 300 10. जैन एकता का प्रश्न-डा० सागरमल जैन (1983) 11. जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में डा० सागरमल जैन (1983) 12. समय पर शिलालेख-मिश्रीलाल जैन (1984) 13. श्रावकधर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न-डा० सागरमल जैन (1984) 14. जैन साधना पद्धति में तप-डा० फूलचन्द जैन 15. धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म-डा० सागरमल जैन (1984) 16. सम्बोधसप्ततिका-अनुवादक डा० रविशंकर मिश्र (1986) 17. धर्म का मर्म-डॉ० सागरमल जैन (1986) 18. गुजरात का जैन धर्म-मुनि जिनविजयजी, द्वितीय संस्करण (1988) 5.00 2.00 अप्राप्य ain Education International