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________________ [ ३१ ] मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में ही जानते हैं अतः उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं आती है जितनी जैन मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने वाले के सम्पर्क से। क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर व्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जायेगा। यदि सद्भाग्य से अश्रद्धा हुई तो वह जिन प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि सामान्य जन तो शास्त्र नहीं उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता है) फलतः उभय तो सर्वनाश का कारण होगी। अतः आचार्य हरिभद्र बारबार जिन शासन रसिकों को निर्देश देते हैं-ऐसे जिनशासत के कलंक शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो। क्योंकि ये तुम्हारे जीवन, चरित्रबल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे । हरिभद्र को जिन शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं अपने ही लोगों से अधिक लगा । कहा भी है इस घर को आग लगी घर के चिराग से। वस्तुतः एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य उद्देश्य था जैन संघ में उनके युग में जो विकृतियाँ आ गयी थीं, उन्हें दूर करना । अतः उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता से देखा। जो सच्चे अर्थ में समाज सुधारक होता है, जो सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियों को खोजता है। हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है , क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता है। उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः प्रतिष्ठित करना। हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को अपनी दृष्टि में रखा है। ___ उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव, गुरु, धर्म, श्रावक आदि का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है । यद्यपि इस निबन्ध की अपनी सीमा है अतः हमें अपने विस्तृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002110
Book TitleHaribhadra ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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