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वे अपनी समालोचना के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे ।
करते
,
तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष हुए वे लिखते हैं कि जिन प्रवचन में पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछंद ( स्वेच्छाचारी ) - ये पाँचों अवंदनीय हैं । यद्यपि ये लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं है। मुनि वेश धारण करके भी ये क्या क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु गुर्व्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अन्तर्गत १७१ गाथाओं में विस्तार से करते हैं । इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना तो सम्भव नहीं है । फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय देने के लिए कुछ विवरण तो दे देना भी आवश्यक ही है । वे लिखते हैं ये मुनि वेशधारी तथाकथित भ्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाये गये भोजन को स्वीकार करते हैं । भिक्षाचर्या नहीं करते हैं । आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमण के जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं । कौतुक कर्म, भूत- कर्म, भविष्य फल एवं निमित्त शास्त्र के माध्यम से धन संचय करते हैं । ये घृत- मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं सूर्य-प्रमाण भोजी होते हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं। न तो साधु-समूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं । 11 फिर ये करते क्या हैं ? हरिभद्र लिखते हैं, सवारी में घूमते हैं, अकारण कटि वस्त्र बांधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपाधि (सामग्री) का प्रतिलेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, फल और पेय ग्रहण करते हैं । भोज समारोहों में जाकर सरस आहार ग्रहण करते हैं, भोजन प्राप्ति के लिए लोगों की (झूठी ) प्रशंसा करते हैं । जिन प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन आदि कर्म करते हैं । नित्य
११. वही, २१०, १३, ३२, ३३, ३४
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