SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । २७ ] दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं। विपुल मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, विस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं। स्त्रियों के समक्ष गीत गाते हैं। आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। लोक प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण धारण करते हैं। चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते है, जिन मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सूवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं। मृतक-कृत्य निमित्त जिन पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) करवाते हैं। धन प्राप्ति के लिए गहस्थों के समक्ष अंग सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदि बलि आदि करते हैं। पाठमहोत्सव रचाते हैं। व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुण गान कर. घाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकायें केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के भी विक्रता हैं। ऐसे आयिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य संग्राहक उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्व परायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं । ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत मात्र शरीर को कष्ट और कर्म बन्धन होता है । वस्तुतः जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हई माला को कोई भी धारण नहीं करता है वैसे ही ये भी अपूज्य हैं14 । हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को फटकारते हुए कहते हैं यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर १२. वही, २।३४, ३५. ३६, ४२, ४६, ४९, ५०, ५२, ५६, ५७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६२-७४ ८८.९२ १३. वही, २२० १४. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कोरते सोसे । पासत्याइठाये वट्टमाणा इह अपुज्जा ।--वही, २।२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002110
Book TitleHaribhadra ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy