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[ १८ ] होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है तत्त्वतः भेद नहीं होता है।'
हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक तो साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों को भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है जिस प्रकार एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता के आधार पर और रोग की भिन्नता के आधार पर अलग-अलग औषधि प्रदान करता है उसी प्रकार महात्मा जन भी संसार रूपी व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्न-भिन्न विधियाँ बताते हैं। वे पुनः कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। वस्तुतः विषय वासनाओं से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्न चिह्न लगाना अनुचित ही है। वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म साधना के क्षेत्र में बाह्य आचारगत भिन्नता या उपास्य को नामगत भिन्नता बहुत ही महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यही है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण
हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी । उनको दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है-ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्क वादे न च तत्त्ववादे ।
न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव ॥ १. योगदृष्टि समुच्चय १०७, १०८, १०९ । २. चित्रातु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः ।
यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ।।-योगदृष्टिसमुच्चय १३४ ३. यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः ।
ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपितत्त्वतः ।।-योगदृष्टिसमुच्चय १३८
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