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________________ [ २४ ] हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध से घत प्रकट होता है उसी प्रकार धर्म मार्ग के द्वारा दूध रूपी आत्मा घत रूप परमात्म तत्त्व को प्राप्त होता है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भावगत धर्म है वही विशुद्धि का हेत है । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० गाथाओं में, आत्म शुद्धि निमित्त जिन पूजा का और उसमें होने वाली अशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म-विशद्धि नहीं होता है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है । वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मुल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकेषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनका क्रान्तर्मिता है। हरिभद्र के युग में जैन परम्परा में चैत्यवास का विकास हो चुका था।अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला वर्ग जिन पूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर रहा था अपितु जिन, द्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी विषय वासनाओं की पूर्ति में उपयोग कर रहा था। जिन प्रतिमा और जिन मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान भूमि या साधना भूमि न बनकर भोग भूमि बन रहे थे। हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के ६. तककाइ जोय करणा खोरं पयडं घयं जहा हज्जा । ~~~वही, १७ ७. भावमयं तं मन्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया । -वही, ११११ पूर्वाद्ध ८. तम्मि य पढमे सुद्धे सव्वाणि तयणुसाराणि । -वही, १।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002110
Book TitleHaribhadra ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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