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[ २९ ] लाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है।
हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह है, आक्रोश है। वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत करो अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप ही धमिल हो जायेगा। वे कहते हैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाये तो नीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। वस्तुतः हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है क्योंकि दुराचारियों के सानिध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं जो जिसकी मित्रता करता है तत्काल वैसा हो जाता है तिल जिस फूल में डाल दिये जाते हैं, उसी की गन्ध के हो जाते हैं । हरिभद्र इस माध्यम समाज को उन लोगों से सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डाले अधर्म में जीते हैं। क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी समाज के लिए अधिक खतरनाक हैं । आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है उसी प्रकार सुश्रावक के लिए हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है । दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सानिध्य तो जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है। 1 । १८. गब्भपवेसो वि वरं भद्दवरो नरयवास पासो वि । ___ मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वि ॥ ... वही २।१३२ १९. वही, २।१०३
२०. वही, २।१०४ २१. वेसागिहेसु गमणं जहा निसिद्ध सुकुल बहुयाणं ।
तह हीणायार जइ जण संग सड्ढाण पडिसिद्ध ।। परं दिदि विसो सप्पो वरं हलाहलं विसं । हीणायार अगीयत्थ वयण पसंगं खु णो भद्दो ।। -वही, श्रावक धर्माधिकार २,३
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