________________
तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्ण या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों की यह विवाद निरर्थक हो जाती है । वस्तुतः आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है स्वरूपगत भिन्नता नहीं । वस्तुतः जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति से वंचित हो जाता है। वे कहते हैं कि जो उस परम तत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्द-गत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक उदार चेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ट आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है । अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं।
निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोष संस्थान
आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org