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[ २२ ] हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म मार्ग से रहित हैं।' मात्र बाहरी क्रिया काण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म तत्त्व की गवेषणा हो, दूसरे शब्दों में जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और पाने का प्रयास हो। जहाँ परमात्म तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वहाँ धर्म-मार्ग नहीं है। वे कहते हैं जिसमें परमात्म तत्त्व की मार्गणा है-"परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग तो मुख्य मार्ग है । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हए लिखते हैं-जहाँ विषय वासनाओं का त्याग हो, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों से निवृत्ति हो, वही तो धर्म मार्ग है। जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है । वस्तुतः धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र की यह पीड़ा मन्तिक है । जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ घणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे धर्म कहना धर्म की विडम्बना है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए अन्य कुछ अर्थात् अधर्म ही है। विषय वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधि. कार की वस्तु मान कर यह कहते हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहाँ तक कह १. मम्गो मग्गो लोए भणं ति, सव्वे वि मग्गणा रहिया ।
-सम्बोधप्रकरण १।४ पूर्वाधं । २. परमप्प मम्गणा जत्थ तम्मग्गो मक्ख मग्गति ।।
-सम्बोधप्रकरण १।४ उत्तरार्ध ३. जत्थ य विसय कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो।
-वही, १५ पूर्वार्ध
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