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देते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है -- जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई * । वस्तुतः उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भांति ही अपने चरम सीमा पर थे - यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है अपितु उनके एक क्रांतदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है । उन्होंने जैन परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों में विभाजित कर दिया 5
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( 1 ) नाम धर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है, किन्तु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है । वह धर्म तत्त्व से रहित मात्र नाम का धर्म है ।
(२) स्थापना धर्म -- जिन क्रिया काण्डों को धर्म मान लिया जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुतः धर्म नहीं हैं । भावना रहित मात्र क्रिया काण्ड स्थापना धर्म है ।
(३) द्रव्य धर्म - आचार-परम्पराएं, जो कभी धर्म थीं, या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं । सत्व शून्य अप्रासंगिक बनी धर्म परम्पराएँ ही द्रव्य धर्म हैं ।
(४) भाव धर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा - समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भाव धर्म है ।
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भाव धर्म को ही प्रधान मानते ४. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा ।
समभाव भाविअप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥
- वही, १1३
नामाई चउप्पभेओ भणिओ ।
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– वही, १1५
( व्याख्या लेखक की अपनी है)
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