Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ [ २३ ] देते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है -- जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई * । वस्तुतः उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भांति ही अपने चरम सीमा पर थे - यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है अपितु उनके एक क्रांतदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है । उन्होंने जैन परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों में विभाजित कर दिया 5 ― ( 1 ) नाम धर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है, किन्तु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है । वह धर्म तत्त्व से रहित मात्र नाम का धर्म है । (२) स्थापना धर्म -- जिन क्रिया काण्डों को धर्म मान लिया जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुतः धर्म नहीं हैं । भावना रहित मात्र क्रिया काण्ड स्थापना धर्म है । (३) द्रव्य धर्म - आचार-परम्पराएं, जो कभी धर्म थीं, या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं । सत्व शून्य अप्रासंगिक बनी धर्म परम्पराएँ ही द्रव्य धर्म हैं । (४) भाव धर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा - समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भाव धर्म है । हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भाव धर्म को ही प्रधान मानते ४. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभाव भाविअप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥ - वही, १1३ नामाई चउप्पभेओ भणिओ । * – वही, १1५ ( व्याख्या लेखक की अपनी है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42