Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 38
________________ [ ३७ ] की है जो अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल करते हैं। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया। हरिभद्र को इस बात से भी आपत्ति है कि हम अपने आराध्य को सपत्नी और शस्त्रधारी रूप में प्रस्तुत करें क्योंकि ऐसा मानने पर हममें और उसमें कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक प्रश्न चिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपाय) की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी। अन्य परम्पराओं के देव और गुरु के सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंगात्मक शैली जहाँ पाठक को चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है। हरिभद्र सम्बोधप्रकरण में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी गुरु और दूसरों को पीड़ा पहचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक स्वरूप को विकृत करना है। अतः हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना होगा। इस प्रकार हरिभद्र धूर्ताख्यान में जनमानस को अंधविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास कर अपने क्रान्तदर्शी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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