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लिए यह सब देख पाना सम्भव नहीं था अतः उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम चलाने का निर्णय लिया । वे लिखते हैं-द्रव्य पूजा तो गृहस्थों के लिए है, मुनि के लिए तो केवल भाव पूजा है, जो केवल मुनि वेशधारी है मुनि आचार का भी पालन नहीं करता है, उसके लिए भी द्रव्य- पूजा जिन-प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है ( सम्बोधप्रकरण १।२७३ ) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा पूजा आदि कार्यों में उलझने पर मुनि वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था । यति संस्था के विकास से उनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रहा है तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन द्रव्य को अपनी वासना पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं तथाकथित भ्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं -- जो श्रावक जिन प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिन द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा भक्षण करते हैं वे क्रमशः भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने वाले और अनन्त संसारी होते हैं । इसी प्रकार जो साधु जिन द्रव्य का भोजन करता है वह प्रायश्चित्त का पात्र है । वस्तुतः यह सब इस तथ्य का भी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासना पूर्ति का माध्यम बन रहा था । अतः हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिए उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया ।
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सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन साधुओं का जो चित्रण किया है वह भी एक ओर जैन धर्म में साधु जीवन के नाम पर जो कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी
९. वही, १९९ - १०४ १०. वही, १1१०८
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