Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 31
________________ [ ३० ] फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे। वे लोगों के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है । वक्र जडो का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन है। (यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि व्रत धारण ही नहीं करेगा) तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है हम क्या करें22 । उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन साधारण कह रहा था कि कुछ भी हो वेश तो तीर्थंकर प्रणीत है अत: वन्दनीय है। हरिभद्र भारी मन से मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ। किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है अतः हरिभद्र का इस पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है। सम्भवतः जैन परम्परा में यह प्रथम अवसर था जब जैन समाज के तथा कथित मुनि वर्ग को इतने स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं दुःखी मन से कहते हैं-हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अच्छा है, अरे व्याधि और मत्यु भी श्रेष्ठ है किन्तु इन कुशीलों का सान्निध्य अच्छा नहीं है। अरे (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ भी अच्छा हो सकता है, किन्तु (अपनी ही परम्परा के) इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही अच्छा नहीं है। क्योंकि हीनाचारी ही तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो शील रूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं । 24 वस्तुतः इस कथन के पीछे आचार्य की एक २२. वही, २१७७-७८ २३. बाला वंयति एवं वेसो तित्थंकराण एसोवि । नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमो॥ .."वही, २१७६ २४. वरं वाही वरं मच्चू वरं दरिद्दसंगमो। वरं अरण्णेवासो य मा कुसीलाण संगमो ।। हीणायारो वि वरं मा कुसीलाण संगमो भद्द। जम्हा हीणो अप्प नासइ सव्वं हु सील निहिं ।। -वही, २।१०१-१०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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