Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 35
________________ [ ३४ ] की घटना, जो मुख्यतः ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल की हैं और पौराणिक यूग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता का पुट भी अधिक नहीं है। गर्भ परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसमें भी आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है अविश्वसनीय और आप्राकृतिक रूप से जन्म लेने का जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है जबकि पुराणों में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं। जैन परम्परा सदैव तर्क प्रधान रही है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ परि. वर्तन की घटना को भी उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया। हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं उनका स्पष्ट कथन है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दे दिया है और कपिल आदि ऋषियों दे हमारे धन का अपहरण नहीं किया है अतः हमारा न तो महावीर के प्रति राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष है। जिसकी भी बात यूक्ति संगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं। जैन परम्परा के अन्य आचार्यों के समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप के निर्णय के लिए क्रमशः वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है उसे स्वीकार करने की बात कहते हैं। जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षतः देव या आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं। वे यह नहीं कहते हैं कि विष्णु, ब्रह्मा एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं। वे तो स्वयं ही कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जो समस्त गुणों से युक्त है वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ।' उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल कल्पनाओं के आधार पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं १. लोकतत्वनिर्णय ३२-३३ २. योगदृष्टिसमुच्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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