________________
[ १७ ]
योग वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक ज्ञान से भिन्न है । हरिभद्र अन्धश्रद्धा से मुक्त होने देने के लिए तर्क एवं युक्ति को आवश्यक मानते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में तर्क या युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए न कि खण्डन- मण्डनात्मक । खण्डनमण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ योगदृष्टि समुच्चय में की है' । इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते - हैं । यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्ड परक ग्रन्थ लिखे हैं । किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह किया है । हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति को चारित्रिकनिर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही है । जीवन में कषाय उपशान्त हो समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है । धर्म के नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छद्म जीवन की उन्होंने खुलकर निन्दा की है और - मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े हाथों लिया है उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
अध्यात्मं भावना ध्यानं समता वृति संक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥
- साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओ का भी उन्होंने सम्यक्• समाधान खोजा है। जिस प्रकार गीता में विविध देवों की उपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है उसी प्रकार हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है । वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं— उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न
१. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६ - १०१ ।
Jain Education International
— योगबिन्दु ३१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org