Book Title: Haribhadra ka Aavdan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 7
________________ [६] जैनेतर परम्पराओं के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में संदेह है । इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अतः किसी सीमा तक इसकी शैलो को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिममत का भी प्रथम मत से खण्डन करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह ' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार करता है । अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है । जैनेतर परम्पराओं में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान माधवाचार्य ( ई० १३५० ? ) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु 'सर्व दर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है । सर्वसिद्धान्तसंग्रह और 'सर्वदर्शनसंग्रह ' दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र बिना किसी खण्ड मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों ग्रन्थों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है । अतः इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है । वैदिक परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा स्थान माधव - सरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का आता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और अवैदिक - ऐसे दो भागों में बांटा गया है । अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध और जैन ऐसे तोन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं । इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है । अतः हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय जैसा उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है । वैदिक परम्परा के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का आता है । मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है । नास्तिक- अवैदिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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