Book Title: Haribhadra ka Aavdan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ निःसारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शन्यवाद-इन तीनों सिद्धान्तों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति को जगत के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा का प्रहाण हो । ____ अद्वैतवाद को समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सामान्य की दष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य है । इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है। अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है अतः वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे समीचीन ही स्वीकार करते हैं । ३ उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए न होकर उन दार्शनिक परम्पराओं को सत्यता के मूल्यांकन के लिए ही है। स्वयं उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध करना है। उपयुक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं। १. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः । शास्त्र० ४६४.४६५।। २. अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ।। वही ५५० ।। ३. ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग व्यवस्थितम् । तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ।। वही ५७९ ४. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥ वही २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42