Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 173
________________ गाथासप्तशती रसिअ विअट्ट विलासिअ समअण्णअ सच्चअं असोओ सि । वरजुअइचलणकमलाहओ वि जं विअससि सहं ॥ ५ ॥ [ रसिक विदग्ध विलासिन्समयज्ञ सत्यमशोकोऽसि । वरयुवतिचरणकमला हतोऽपि यद्विकससि सतृष्णम् ॥ ] ९८ * हे रसिक ! विदग्ध ! विलासी एवं समयज्ञ अशोक तुम सचमुच अशोक ही हो क्योंकि तरुणियों के चरणाम्बुज से आहत होकर भी प्रेम से पुष्पित हो जाते हो ॥ ५ ॥ वलिणो बाआबन्धे चोज्जं णिउअत्तणं च पअडन्तो । वामणरूवो हरो सुरसत्थक आणन्दो [ बलेर्वाचाबन्धे आश्चयं निपुणत्वं च प्रकटयन् । सुरसार्थकृतानन्दो वामनरूपो हरिर्जयति ॥ ] जअइ ॥ ६ ॥ राजा बलि को वाग्बद्ध करते समय विस्मय और निपुणता प्रकट करते हुए देवगणों को आनन्द प्रदान करने वाले वामन रूपधारी भगवान् की जय हो ॥ ६ ॥ विज्जाविज्जइ जलणो गहवइघ् आइ वित्थअसिहो वि । अणुमरणघणालिङ्गणपिअअमसुह सिजि रङ्गीए [ निर्वाप्यते ज्वलनो गृहपतिदुहित्रा विस्तृतशिखोऽपि । अनुमरणघनालिङ्गनप्रियतमसुखस्वेदशीताजया #1] ॥७॥ सती होने के लिए प्रिय के प्रगाढ़ आलिंगन के सुख से जो प्रस्वेद में डूब गई थी, भद्र गृहस्थ की उस पुत्री ने धधकती ज्वाला को भी शान्त कर दिया ॥ ७ ॥ जारमसाणसमुब्भवभूइसुहष्फंस सिञ्जिरङ्गीए ण समप्पइ णवकावालिआइ उद्दूलणारम्भो ॥ ८ ॥ [ जारश्मशानसमुद्भवभूतिसुखस्पर्शस्वेदशोलाङ्गयाः । न समाप्यते नवकापालिक्या उद्दूलनारम्भः ॥ ] Jain Education International जार की चिता की धूल के सुखद स्पर्श से स्वेदार्द्र होकर यह नई कापालिको अपने अंग में भस्म लगाना नहीं बन्द करती ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244