Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 212
________________ षष्ठं शतकम् [पङ्कमलिनेन क्षीरैकपायिना दत्तजानुपतनेन । पुत्रेणेव शालिक्षेत्रेण ॥ ] आनन्द्यतेहालिकः पंक से मलिन, मात्र दुग्धपान करनेवाले, घुटने तक बढ़कर गिरे हुए पुत्र की भौतिशालि के खेत को देखकर हलवाहा आनन्दित होता है । ( यहाँ अन्यापदेश से अभिसार के योग्य शालिक्षेत्र का संकेत किया गया है | ) कह मे परिणइआले खलसङ्गो होहिइ त्ति चिन्तन्तो । ओणअमुहो ससूओ स्वs व साली तुसारेण ॥ ६८ ॥ [ कथं मे परिणतिकाले खलसङ्गो भविष्यतीति चिन्तयन् । अवनत मुखः सशूको रोदितोव शालिस्तुषारेण ॥ ] मेरे पक जाने पर (बुढ़ापे में ) न जाने कैसे खल ( दुष्ट और खलिहान ) का साथ होगा ? यही सोच कर मानों धान अपनी टूड़ों के साथ तुषार के आँसू बहाकर शोक से शिर झुकाये रो रहा है ॥ ६८॥ १३७ संज्ञाराओत्थइओ दीसह गअणम्मि पडिवआचन्दो | रत्तदुऊलन्तरिओ थणण हलेहो व्व णववहुए ॥ ६९ ॥ [ संध्यारागाव स्थगितो दृश्यते गगने प्रतिपच्चन्द्रः । रक्तदूकूलान्तरितः स्तननखलेख इव नववध्वाः ॥ ] सन्ध्या की अरुणिमा में प्रतिपदा के आकाश का चन्द्रमा यों दिखाई पड़ रहा है जैसे किसी नववधू के अरुण दुकूल के भीतर से उसके स्तनों की नखरेखा ।। ६९ ।। अइ दिअर किण पेच्छसि आआसं कि मुहा पलोएसि । जाआइ बाहुमुलभिम अद्धअन्दाणं परिवाडि ॥ ७० ॥ [ अयि देवर किं न प्रेक्षसे आकाशं किं मुधा प्रलोकयसि । बाहुमूलेऽर्धचन्द्राणां जायाया परिपाटीम् ।। ] अरे देवर ! आकाश में क्या देख रहे हो ? पत्नी के वक्षस्थल पर अंकित अर्द्धचन्द्रों को श्रेणी को क्यों नहीं देखते ? ॥ ७० ॥ वाआई कि भणिज्जउ केत्तिअमेत्तं व लिक्खए लेहे । तुह विरहे जं दुक्खं तस्स तुमं चेअ गहिअत्थो ॥ ७१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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