Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 213
________________ १३८ गाथासप्तशती [वाचया कि भण्यतां कियन्मात्रं वा लिख्यते लेखे । तव विरहे यदुःखं तस्य त्वमेव गृहीतार्थः॥] वाणी से क्या कहूँ ? पत्र में क्या लिखू ? प्रियतम ! तुम्हारे वियोग में मैं जितना दुःखी हूँ, उसे तुम्हीं जानते होगे ! ॥ ७१ ॥ मअणग्गिणो व्व धूमं मोहणपिच्छि व लोअदिट्ठीए । जोव्वणध व मुद्धा वहइ सुअन्धं चिउरभारं ॥ ७२ ॥ [ मदनाग्नेरिव धूमं मोहनपिच्छिकामिव लोकदृष्टः । यौवनध्वजमिव मुग्धा वहति सुगन्धं चिकुरभारम् ॥] वह मुग्धा जिस सुगन्धित चिकुर-भारको वहन कर रही है वह मदनाग्नि का घुला है, लोकदृष्टि को मोहने वाली पिच्छिका है और यौवन का ध्वज है ॥७२॥ रूसिट्ठ चिअ से असेसपुरिसे णित्तिअच्छेण । वाहोल्लेण इमीए अजम्पमाणेण वि मुहेण ॥ ७३ ॥ [रूपं शिष्टमेव तस्याशेषपुरुषे निवर्तिताक्षेण । वाजाद्रणास्या अजल्पतापि मुखेन ।] जिसने संसार के सभी पुरुषों से अपनी दृष्टि फेर ली है, सुन्दरी के उस अश्रुपूर्ण मुख ने चुप रह कर भी उन के रूप का वर्णन कर दिया ।। ७३ ॥ रुन्दारविन्दमन्दिरमअरन्दाणन्दिआलिरिज्छोली । झणझणइ कसणमणिमेहल व्व महमासलच्छीए ॥ ७४ ॥ [ बृहदरविन्दमन्दिरमकरन्दानन्दितालिपंक्तिः । झणझणायते कृष्णमणिमेखलेव मधुमासलक्ष्म्याः ॥] प्रफुल्ल अरविन्द-मन्दिर में मकरन्द पान से हर्षित मधुकरश्रेणी वसन्तलक्ष्मी की मरकत मेखला सो झनझना रही है ॥ ७४ ॥ कस्स कहो बहुपुण्णप्फलेक्कतरुणो तुहं विसम्मिहइ । थणपरिणाहे मम्महणिहाणकलसे व्व पारोहो॥ ७५ ॥ [कस्य करो बहुपुण्यफलैकतरोस्तव विश्रमिष्यति । स्तनपरिणाहे मन्मथनिधानकलश इव प्ररोहः ॥] अनेक पुण्यों का फल फलने वाले वृक्ष के पल्लव के समान, किसका हाथ तुम्हारे निधि-कुम्भ तुल्य विस्तृत पयोधरों पर विश्राम करेगा ? ॥ ७५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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