Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 235
________________ १६० गाथासप्तशती [धवलोऽसि यद्यपि सुन्दर तथापि त्वया मम रञ्जितं हृदयम् । रागभृतेऽपि हृदये सुभग निहितो न रक्तोऽसि ॥] यद्यपि तुम उज्ज्वल हो, प्राणेश ! फिर भी तुमने मेरा हृदय रंजित कर दिया है और मैंने तुम्हें आरक्त हृदय में छिपाकर रखा तो भी तुम अनुरक्त नहीं हुए ॥ ६५ ॥ चञ्चपुडाअविअलिअसहआररसेण सित्तदेहस्स । कीरस्स मग्गलग्गं गन्धन्धं भमई भमरउलं॥६६॥ [चञ्चपुटाहतविगलितसहकाररसेन सिक्तदेहस्य । __कीरस्य मार्गलग्नं गन्धान्धं भ्रमति भ्रमरकुलम् ॥] चंचु पुटों के आधात से विगलित, रसाल के रस से, जिसका सम्पूर्ण शरीर अभिषिक्त हो गया है, सुगन्ध से अन्धे होकर भौंरे उस कोर के पीछे उड़ रहे है ॥ ६६ ॥ एत्थ जिमज्जइ अत्ता, एत्थ अहं, परिअणो सअलो। पन्थिअ ! रत्तीअन्धअ ! मा महँ सअणे णिमज्जिहिसि! ॥ ६७ ॥ [अत्र निमज्जतिं श्वश्रूरत्राहमत्र परिजनः सकलः । पथिक रात्र्यन्धक मा मम शयने निमक्षयासि ॥] ___ यहां सास सोती है, यहाँ मैं और यहाँ सब नौकर-चाकर । बटोही ! तुम्हें रतौंधी होती है, देखना, मेरी शैया पर न आ जाना ।। ६७ ॥ परिओससुन्दराई सुरएसु लहन्ति जाइँ सोक्खाई। ताई च्चिअ उण विरहे खाउग्गिण्णाई कीरन्ति ॥ ६८ ॥ [परितोषसुन्दराणि सुरतेषु लभन्ते यानि सौख्यानि । तान्येव पुनर्विरहे खादितोद्गीर्णानि कुर्वन्ति ॥] सुन्दरियाँ सुरत में जो सन्तोषपूर्ण सुन्दर सुख प्राप्त करती हैं, विरह में उन्हों का वमन करती हैं ॥ ६८ ॥ मग्गं च्चिअ अलहन्तो हारो पोषुण्णआण थणआणं । उविग्गो भमइ उरे जमुणाणइफेणपुजो व्व ॥ ६९ ॥ [मार्गमिवालभमानो हारः पीनोन्नतयोः स्तनयोः। उद्विग्नो श्रमत्युरसि यसुनानदीफेनपुञ्ज इव ॥] हार, ऊँचे उठे हुए पोन उरोजों पर मानों मार्ग न पाकर यमुना के फेनपुज सा, वक्षःस्थल पर उदास फिर रहा है ।। ६९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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