Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 219
________________ १४४ गाथासप्तशती [ मालाकार्यः . सुन्दरबाहुमूलावलोकनसतृष्णः । __ अलीकमपि भ्रमति कुसुमाघप्रश्नशोल: पांसुलयुवा ॥] मालिनी के सुन्दर भुजमूल का अवलोकन करने की तृष्णा से लम्पट-युवक व्यर्थ ही पुष्पों का मूल्य पूछने के लिए घूम रहा है । ९८ ॥ अकअण्णुअ घणवण्णं घणपण्णन्तरिअतरणिअरणिअरं। जइ रे रे वाणीरं रेवाणीरं पि णो भरसि ॥ ९९॥ [ अकृतज्ञ धनवर्णं घनपर्णान्तरिततरणिकरनिकरम् । यदि रे रे वानीरं रेवानीरमपि न स्मरसि ॥] . रे कृतघ्न ! जिसके घने पत्रों की छाया में सूर्य की रश्मियां भी छिप जाती थीं, वह मेघ-सा श्यामल नीप-निकुंज यदि तुझे भूल गया तो क्या रेवा का नीर भी याद न रहा ॥ ९९ ॥ मन्दं पि ण आणइ हालअणन्दणो इह हि डड्ढगामम्मि। गहवइसुआ विवज्जइ अवेज्जए कस्स साहामो ॥१०॥ [ मन्दमपि न जानाति हलिकनन्दन इह हि दग्धग्रामे । गृहपतिसुता विपद्यतेऽवैद्यके कस्य कथयामः ।।] वह मूर्ख हलवाहे का पुत्र, इतना भी नहीं जानता कि इस वैद्य-हीन दुष्ट गांव में कुलीन घर की पुत्री मर रही है, किससे कहें ॥ १० ॥ रसिमजणहि अअदइए कइवच्छलपमुहसुकइणिम्मिइए। सत्तसअम्मि समत्तं सट्ठ गाहास एअं॥१०१॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सल प्रमुखसुकविनिर्मिते । सप्तशतके समाप्तं षष्ठं गाथाशतकमेतत् ॥] जिनमें हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा रचे हुये रसिकों को प्रिय सप्तशतक का षष्ठ शतक पूरा हुआ ॥ १०१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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