Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 225
________________ १५० गाथासप्तशती [ शरदि सरसि पथिका जलानि नीलोत्पलसुरभिगन्धीनि । धवलाच्छानि सतृष्णाः पिबन्ति दयितानामिव मुखानि ॥ ] तृषित पथिक शरत्काल में नीलोत्पल की सुरंभी से सुवासित सरोवर का शुभ स्वच्छ जल श्वेत नयनों वालों प्रिया के सुगंधित मुख के समान पी जाते हैं ।। २२ ।। अब्भन्तरसरसाओ उवरि पव्वाअबद्धपकाओ । चङ्क्रम्मन्तम्मि जणे समुस्ससन्ति व रच्छाओ ॥ २३ ॥ [ अभ्यन्तरसरसा उपरि प्रवातबद्धपङ्काः । चङ्क्रममाणे जने समुच्छ्वसन्तीव रथ्याः ॥ ] तीक्ष्ण वायु से ऊपर का पंख सूख जाने पर भी जो भीतर से गीली हैं बे गाँव की गलियाँ लोगों के यातायात से मानों आह भर रही हैं ? | २३ ॥ मुहपुण्डरीअछाआइ संठिआ उअह राअहंसे व्व । छण पिट्ठकुट्टणुच्छलिअधूलिधवले थणे वह ।। २४ ।। [ मुखपुण्डरीकच्छायायां संस्थितौ पश्यत राजहंसाविव । क्षणपिष्टकुट्टनोच्छलितधूलिधवली स्तनौ वहति ॥ ] वह सुन्दरी, उत्सव के दिन, पीसने कूटने से उड़ी हुई धूलि से धवलित पयोधरों को मुख पद्म को छाया में बैठे हुए दो राजहंसो के समान धारण करती है ।। २४ ।। तह तेविसा दिट्ठा, तोअ वि तह तस्स पेसिआ दिट्ठी । जह दोण्ह वि समअं चिअ णिव्वुत्तरआइँ जाआई ।। २५ ।। [ तथा तेनापि सा दृष्टा तयापि तथा तस्मै प्रेषिता दृष्टिः । यथा द्वावपि सममेव निर्वृत्तरतौ जाती ॥ ] उसने उसे इस प्रकार देखा और उसने भी उसकी ओर बैसी ही दृष्टि डाली। दोनों ने एक ही समय में रति का आनन्द उठा लिया ॥ २५ ॥ वाउलिआरसोसण कुडङ्गपत्तलणसुलह संकेअ । सोहग्गकणअकसवट्ट गिम्ह! मा कह वि झिज्जिहिसि ।। २६ ।। [ स्वल्पखातिखातिकापरिशोषण निकुञ्जपत्रकरण सुलभसंकेत । सौभाग्यकनककषपट्ठ ग्रीष्म मा कथमपि क्षीणो भविष्यसि ॥ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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