Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 217
________________ २४२ गाथासप्तशती [निधुवनशिल्पं तथा शारिकयोल्लपितमस्माकं गुरुपुरतः। यथा तां वेलां मातर्न जानीमः कुत्र व्रजामः ॥] मैया ! सारिका ने गुरुजनों के समक्ष रति लोला का ऐसा वर्णन किया, जिसे सुनकर उस समय मेरी समझ में नहीं आया कि मैं कहां जाकर छिप जाऊँ ॥ ८९ ॥ पच्चग्गप्फुल्लदलुल्लसन्तमअरन्दपाणलेहलओ तं पत्थि कुन्दकलिआइ जंण ममरो महइ काउं ॥ ९० ॥ [प्रत्यग्रोत्फुल्लदलोल्लसन्मकरन्दपानलुब्धः। तन्नास्ति कुन्दकलिकाया यन्न भ्रमरो वाञ्छति कर्तुम् ॥] ५ प्रत्यग्र-पुष्पित दलों पर छलकते हुए मकरन्द के पान का लोभी भ्रमर कुन्दकली का क्या नहीं कर डालना चाहता ॥ ९० ॥ सो को वि गुणाइसओ ण आणिमो मामि कुन्दलइआए। अच्छीहिं चिअ पाउं अहिलस्सइ जेण भमरेहिं ॥ ९१ ॥ [ स कोऽपि गुणातिशयो न जानीमो मातुलानि कुन्दलतिकायाः। _अक्षिभ्यामेव पातुमभिलष्यते येन भ्रमरैः॥] मामी ! पता नहीं कुन्द-लता में कौन सा ऐसा श्रेष्ठ गुण है, जिससे भंवरे उसे आँखों से ही पी जाना चाहते हैं ।। ९१ ॥ एक्क च्चिअ रूअगुणं गामणिधूआ समुन्वहइ । अणिमिसणअणो सअलो जीए देवीकओ गामो ॥ ९२ ॥ [ एकैव रूपगुणं ग्रामणोदुहिता समुदहति । अनिमिषनयनः सकलो यया देवीकृतो ग्रामः ।।] ग्रामनायक की एकलौती पुत्री एक ही गुण को धारण करती है, उसने (एकटक देखने वाले ) सारे गाँव को देवता बना दिया है ॥ ९२ ॥ मण्णे आसाओ च्चिअ ण पाविओ पिअअमाहररसस्स । तिअसेहिं जेण रअणाअराहि अमअं समुद्धरिअं ॥ ९३ ॥ [मन्ये आस्वाद एव न प्राप्तः प्रियतमाधररसस्य । त्रिदशैर्येन रत्नाकरादमृतं समुद्धृतम् ।। ] मैं समझता हूँ, देवताओं को प्रिया के अधरासन का स्वाद नहीं मिला था, जिससे उन्हें सागर से अमृत निकालना पड़ा ॥ ९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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