Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 216
________________ षष्ठं शतकम् १४१ णवपल्लवं विसण्णा पहिआ पेच्छन्ति चूअरुक्खस्स । कामस्स लोहिउप्पङ्गराइरं हत्थभल्लं व ॥ ८५ ॥ [ नवपल्लवं विषण्णाः पथिकाः पश्यन्ति चूतवृक्षस्य । ___ कामस्य लोहितसमूहराजितं हस्तभल्लमिव ।। ] विषण्ण पथिक काम के लोहित-रंजित भाले के समान रसाल का नवपल्लव देख रहे हैं । ८५ ॥ महिलाणं चिअ दोसो जेण पवासम्मि गन्विआ पुरिसा। दो तिण्णि जाव ण मरन्ति ता ण विरहा समप्पन्ति ॥८६॥ [ महिलानामेव दोषो येन प्रवासे गर्विताः पुरुषाः । द्वे तिम्रो यावन्न म्रियन्ते तावन्न विरहाः समाष्यन्ते । ] प्रवास में भी पुरुषों का गर्व बना रहता है, इसमें महिलाओं का ही दोष है, क्योंकि जब तक दो-चार की मृत्यु नहीं होतो, तब तक उनका विरह ही नहीं समाप्त होता ।। ८६ ॥ बालअ दे वच्च लहुं मरइ वराई अलं विलम्वेण । सा तुज्झ दसणेण वि जीवेज्जइ णस्थि संदेहो ॥ ८७ ॥ [ बालक हे व्रज लघु म्रियते वराकी अलं विलम्बेन । सा तव दर्शनेनापि जीविष्यति नास्ति सन्देहः ।। ] बेटा ! शीघ्र चलो, विलम्ब मत करो, वह अबला मृत्यु शैय्या पर पड़ी है। तुम्हें देखते ही जीवित हो जायगी, इसमें रंच भी सन्देह नहीं है ।। ८७ ॥ तम्मिरपसरिअहुअवह जालालिपलोधिए वणाहोए । किसुअवणन्ति कलिऊण मुद्धहरिणो ण णिक्कमइ ॥ ८८ ॥ [ताम्रवर्णप्रसृतहुतवहज्वालालिप्रदोपिते वनाभोगे । किंशुकवनमिति कलयित्वा मुग्धहरिणो न निष्कामति ।। ] लाल-लाल दावानल की फैली हुई प्रचण्ड लपटों से प्रदीपित, वनाली को पुष्पित पलाश-वन समझ कर मुग्ध हरिण बाहर नहीं निकलते हैं ॥ ८८॥ णिहुअणसिप्पं तह सारिआइ उल्लाविरं म्ह गुरुपुरओ। जह तं वेलं माए ण आणिमो कत्थ वच्चामो ॥ ८९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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