Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 222
________________ १४७ सप्तमं शतकम् [गृहमिव वित्तरहितं निर्झरकुहरमिव सलिलशन्यम् । गोधनरहितं गोष्ठपिद तस्या वदनं तव वियोगे ।।] उसका मुख तुम्हारे वियोग में धनहीन गृह जल-शून्य निर्झर-कुहर एवं गोधन रहित गोठ के समान प्रतीत हो रहा है ॥ ९॥ तुह दंसणेण जणिओ इमीअ लज्जाउलाइ अणुराओ। दुग्गअमणोरहो विअ हिअअ च्चिअ जाइ परिणामं ॥१०॥ [तव दर्शनेन जनितोऽस्या लज्जालुकाया अनुरागः । दुर्गतमनोरथ इव हृदय एव याति परिणामम् ॥ ] उस लज्जावती के हृदय में तुम्हें देखकर जो प्रणय अरित हुआ था। वह दरिद्र के मनोरथ के समान भीतर ही भीतर परिपक्व हो गया है ॥१०॥ जं तणुआअइ सा तुह कएण कि जेण पुच्छसि हसन्तो। अह गिम्हे मह पअई एवं भणिऊण ओरुण्णा ॥११॥ [या तन्यते सा तव कृतेन किं येन पृच्छसि हसन् । असी ग्रीष्मे मम प्रकृतिरिति भणित्वावरुदिता ।। ] . क्या सभी स्त्रियाँ तुम्हारे वियोग में दुर्बल होती हैं, जो हँसकर पूछ रहे हो ? "ग्रीष्म में मेरी प्रकृति ही ऐसी है," यह कहकर वह रो पड़ी ॥ ११ ॥ वण्णक्कमरहिअस्स वि एस गुणो णवरि चित्तकम्मस्स । णिमिसं पि जंण मुञ्चइ पिओ जणो गाढमुवऊढो ॥१२॥ [वर्णक्रमरहितस्याप्येष गुण: केवलं चित्रकर्मणः । निमिषमपि यन्न मुञ्चति प्रियो जनो गाढमुपमूढः ॥] वर्णक्रम से शून्य होने पर भी चित्र में ही यह गुण पाया जाता है कि प्रियतम अपनी प्रेयसी का भुज-बन्धन क्षण भर शिथिल नहीं होने देता ॥ १२ ॥ अविहत्तसंधिबन्धं पढमरसुन्भेअपाणलोहिल्लो । उज्वेलिङ ण आणह खण्डइ कलिआमुहं भमरो ॥ १३ ॥ [अविभक्तसंधिबन्धं प्रथमरसोभेदपानलुब्धः ।। उद्वेल्लितुन जानाति खण्डयति कलिकामुखं म्रमरः॥] पहले पहल निकला हुआ मकरन्द पीनेका लोभी भौंरा कली को बन्द पंखुरियों को खिलाना तो जानता नहीं केवल उसका मुख खंडित कर देता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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