Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ षष्ठं शतकम् १३५ पुलकित कपोल और प्रफुल्ल अपलक नेत्रों वाले सुन्दरियों के बदन पानी में हुबकी लगा कर, प्रियतम के आलिंगन की रसमय क्रीड़ा की सूचना दे रहे है ॥ ५८॥ अहिणवपाउसरसिएसु सोहइ साआइएसु दिअहेसु । रहसपसारिअगीवाणे णच्चिों मोरवुन्दाणं ॥ ५९ ॥ [अभिनवप्रावृड्रसितेषु शोभते श्यामायितेषु दिवसेषु । रभसप्रसारितग्रीवाणां नृत्यं मयूरवृन्दानाम् ।। ] जब दिवस को कान्ति श्यामल हो जाती है और वर्षा के नवीन मेघ गरज उठते हैं, तब सहसा उद्ग्रीव मयूरों का नृत्य सुन्दर लगता है ॥ ५९ ॥ महिसक्खन्धविलग्गं घोलइ सिमाहअं सिमिसिमन्तं । आहअवीणाझंकारसद्द मुहलं मसअवुन्दं ॥ ६० ॥ [ महिषस्कन्धविलग्नं घूर्णते शृङ्गाहतं सिमसिमायमानम् । ___ आहतवीणाझंकारशब्दमुखरं मशकवृन्दम् ।।] भैंसे के कन्धे पर बैठे हुये मच्छर उसको सींगों से आहत होते ही वीणा जैसी मुखर झनकार करते हुए भनभना कर उड़ने लगते हैं ॥ ६० ॥ रेहन्ति कुमुअदलणिच्चलट्टिआ मत्तमहुअरणिहाआ। ससिअरणीसेसपणासिअस्स गण्ठि व्व तिमिरस्स ॥ ६१॥ [ राजन्ते कुमुददलनिश्चलस्थिता मत्तमधुकरनिकायाः। शशिकरनिःशेषप्रणाशितस्य ग्रन्थय इव तिमिरस्य ।।] .. कुमुदों की पंखुरियों पर निस्तब्ध बैठे हुये मतवाले मधुकर पुज चन्द्रमा की किरणों से उन्मूलित अन्धकार की बची हुई ग्रन्थि के तुल्य शोभित होते उअह तरुकोडराओ णिक्कन्तं पुंसुबाण रिज्छोलि । सरिए जरिओ व्व दुमो पित्तं व्व सलोहिअं वमइ ॥ ६२ ॥ [ पश्यत तरुकोटरानिष्क्रान्तां पुशुकानां पङ्क्तिम् । शरदि ज्वरित इव द्रुमः पित्तमिव सलोहितं वमति ।।] देखो, वृक्ष के कोटर से नरशुकों की श्रेणी निकल रही है, जैसे शरत्कालज्वर से पीड़ित यह वृक्ष रक्त-मिश्रित पित्त का वमन कर रहा हो ॥ ६२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244