Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 208
________________ षष्ठं शतकम् १३३ देखा, प्रिय ने झट जिसका केश पकड़ कर मुख ऊपर कर दिया था, वह मानिनी, उसके मुख से गिराई हुई मदिरा को रोष की दवा के समान धीरे-धीरे पी रही है ॥ ५० ॥ गिरिसोत्तोत्ति भुअंगं महिसो जोहर लिहइ संतत्तो । महिसस्स कवत्थरझरो त्ति सप्पो पिअइ लालं ॥ ५१ ॥ [ गिरिस्रोत इति भुजंगं महिषो जिह्वया लेढि संतप्तः । महिषस्य कृष्णप्रस्तरझर इति सर्पः पिबति लालाम् ॥ ] सन्तप्त भैंसा कृष्ण सर्प को पर्वतीय स्रोत समझ कर जिह्वा से चाट रहा है और सर्प भैंसे के मुँह से चूती लार को नील पाषाण से झरता हुआ झरना -समझ कर पी रहा है ॥ ५१ ॥ पञ्जरसारि अत्ता ण णेसि कि एत्थ रद्दहराहिन्तो । वीसम्भजम्पिआई एसा लोआण पअडेइ ॥ ५२ ॥ [ पञ्जरसारी मातुलानि न नयसि किमत्र रतिगृहात् । विस्रम्भजल्पितान्येषा लोकानां प्रकटयति ॥ ] मामी ! पिंजड़े की सारिका को रति मन्दिर से बाहर क्यों नहीं रख देती ? वह एकान्त में होने वाले हमारे प्रणयालाप लोगों के सामने प्रकट कर देती है ।। ५२ ।। एहमेत्ते गामेण पडद्द भिक्ख त्ति कीस मं भणसि । धम्मि करञ्जभञ्जअ जं जीअसि तं पि दे बहुअं ॥ ५३ ॥ [ एतावन्मात्रे ग्रामे न पतति भिक्षेति न किमिति मां भणसि । धार्मिक करञ्जमज्जक यञ्जीवसि तदपि ते बहुकम् ॥ 'इतने बड़े गाँव में भीख नहीं मिली' यह मुझसे क्यों कहते हो ? अरे । करंज की शाखा तोड़ने वाले धार्मिक ! तुम जीवित हो, यहीं तुम्हारे लिये बहुत है ॥ ५३ ॥ जन्तिअ गुलं विमग्गसि ण अ मे इच्छाह वाहसे जन्तं । अणरसिअ किं ण आणसिण रसेण विणा गुलो होइ ॥ ५४ ॥ [ यान्त्रिक गुडं विर्मागयसे न च ममेच्छया वाहयसि यन्त्रम् । अरसिक किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति ॥ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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