Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal,
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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गाथासप्तशती
इस निगोड़ी कामाग्नि का कुछ और ही स्वभाव है, वह नीरस पुरुषों के हृदय में बुझ जाती है और सरस पुरुषों के हृदय में अनायास प्रज्ज्वलित हो उठती है ॥ ३० ॥
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तह तस्स माणपरिवढिअस्स चिरपरणअवद्धमूलस्स । मामि पडन्तस्स सुओ सद्दो विण पेम्मरुक्खस्स ॥ ३१ ॥ [ तथा तस्य मानपरिवर्धितस्य चिरप्रणयबद्धमूलस्य । मातुलानि पततः श्रुतः शब्दोऽपि प्रेमवृक्षस्य ॥ ]
पुराने प्रणय से, जिसकी जड़ें सुदृढ़ हो चुकी थीं, उस आदर भाव से बढ़े.. हुए प्रेम-वृक्ष के गिरने का शब्द भी नहीं सुनाई पड़ा ।। ३१ ।।
पाअपडिओ ण गणिओ पिअं भणन्तो वि अप्पिअं भणिओ । वच्चन्तो वि ण रुद्धो भण कस्स कए कओ माणो ।। ३२ ।। [ पादपतितो न गणितः प्रियं भणन्नप्यप्रियं भणितः । व्रजन्नपि न रुद्धो भण कस्य कृते कृतो मानः ॥ ] जब वे तेरे चरणों पर गिर पड़े तब भी तूने परवाह नहीं की । प्रियवाणी का भी कटु उत्तर देती रही और जाते समय भी नहीं रोका, बता, सखी ! तूने मान ही किसके लिए किया था ।। ३२ ।
पुसइ खणं धुवइ खणं परफोडइ तक्खणं अआणन्ती । मुद्धबहूथणवट्ट दिण्णं दइएण हरवअं ।। ३३ ।।
[ प्रोञ्छति क्षणं क्षालयति क्षणं प्रस्फोटयति तत्क्षणमजानती । मुग्धवधूः स्तनपदे दत्तं दयितेन नखरपदम् ।। ]
स्तनों पर अंकित प्रिय के नख चिह्न का क्षण भर पोंछती है, क्षण भर धोती है और क्षण
रहस्य न समझ कर मुग्धा उसे भर झाड़ती है ।। ३३ ।।
वासरते उण्णअपद्मोहरे जोव्वणे व्व वोलीणे । पढमेक्ककासकुसुमं दीसइ पलिअं व धरणीए ॥ ३४ ॥
[ वर्षाकाले उन्नतपयोधरे यौवन इव व्यतिक्रान्ते । प्रथमैककाश कुसुमं दृश्यते पलितमिव धरण्याः ।। ]
उन्नत पयोधरों वाले यौवन के समान उन्नत मेघों वाले वर्षा काल के बीत जाने पर फूली हुई कास पृथ्वी की श्वेत कच - राशि-सी दिखाई पड़ती है ॥ ३४ ॥
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