Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 189
________________ गाथासप्तशती आअम्बलोअणाणं ओल्लंसुअपाअडोरुजहणाणं । अवरमज्जिरीणं कए ण कामो वह चावं ॥ ७३ ॥ [ आताम्रलोचनानामाद्रशुकप्रकटोरुजघनानाम् । अपराह्नमज्जनशीलानां कृते न कामो वहति चापम् ॥ ] जिनके लोचन आरक्त हो रहे हैं तथा भींगे हुए अंशुक से जिनके उरु और जन दिखलाई पड़ते हैं, दिन ढलने पर स्नान करती हुई उन युवतियों की सहायता के लिए काम अपना धनुष नहीं धारण करता ॥ ७३ ॥ ११४ के उव्वरिआ के इह ण खण्डिआ के ण लुत्तगुरुविहवा । गहराई वेसिणिओ गणणारेहा उव वहन्ति ॥ ७४ ॥ [ के उर्वरिताः के इह न खण्डिताः के न लुप्तगुरुविभवाः । नखराणि वेश्या गणनारेखा इव वहन्ति ॥ ] कौन बचे हैं ? किन व्रतियों का व्रत यहाँ नहीं खण्डित हुआ है ? और किन व्यक्तियों का अक्षय वैभव यहाँ लुप्त नहीं हो गया ? मानों गणिकाएँ इसी की गणना के लिए खींची हुई रेखाओं के समान असंख्य नख-पंक्तियाँ धारण करतो हैं ॥ ७४ ॥ विरहेण मन्दरेण व हिअअं दुद्धोअहं व महिऊण । उन्मूलिआइँ अब्बो अहं रअणाइँ व सुहाई ॥ ७५ ॥ [विरहेण मन्दरेणे व हृदयं दुग्धोदधिमिव मथित्वा । उन्मूलितानि कष्टमस्माकं रत्नानीव सुखानि ॥ ] हाय ! विरह-मन्दर ने हृदय का क्षोर सिन्धु मथ डाला और रत्नों के समान सुखों को निकाल कर बाहर रख दिया है ।। ७५ ।। उज्जुअरए ण तूसइ वक्कम्मि वि आश्रमं विअप्पे | एत्थ अहव्वाएँ मए पिए पिअं कहँ णु काअव्वं ॥ ७६ ॥ { [ ऋजुकरते न तुष्यति वक्रेऽप्यागमं विकल्पयति । अत्र भव्या मया प्रिये प्रियं कथं नु कर्त्तव्यम् ॥ ] वे सीधी-सादी रति से सन्तुष्ट हो नहीं होते के विषय में शंका करते हैं । मैं अत्यन्त अयोग्य हूँ, ॥ ७६ ॥ और वक्र केलि की प्राप्ति उनका प्रिय कैसे करूँ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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