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चौथे व्यक्त नाम के पंडित अपने अन्तःकरण में 'पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश' इन पाँच भूतों के अस्तित्व में ही सन्देह-संशय धरने वाले थे। तथा वेद की श्रुति का अर्थ भिन्न रीति से करने वाले थे। उनको प्रभु ने कहा- "हे व्यक्त ! तेरे हृदय में यह संदेह-संशय है कि-'पाँच भूत हैं कि नहीं ?' यह संशय भी तुम को परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है। तुम किस लिये वेदपदों के वास्तविक अर्थ को भावित नहीं करते हो ?” ऐसा कहकर प्रभु ने वेदवाक्यों का उच्चारण किया-"येन स्वप्नोपमं वै सकलं इत्येष ब्रह्मविधिरजसा विज्ञेय" इति । इस वेदवाक्य का अर्थ तुम इस तरह से करते हो कि-पृथ्वी, पानी इत्यादि समस्त विश्व स्वप्न सदृश ही है। जैसे-स्वप्न में रत्न, स्वर्ण वस्त्र, स्त्री, पुत्र, अन्न इत्यादि देखते हैं; किन्तु वास्तविक रूप में वे कुछ नहीं हैं ; वैसे पृथ्वी, पानी इत्यादि भूतों को देखते हैं, लेकिन वास्तविक रूप में वे पदार्थ नहीं हैं; सर्व स्वप्न सदृश ही हैं। अर्थात्-निश्चितपने यह दृश्यमान पृथ्वी आदि सर्व जगत् स्वप्नोपम है। इस वेदवाक्य से भूतों का अभाव प्रतीत होता है। इस तरह यह ब्रह्मविधि शीघ्र जान लेना। इससे तू जानता है कि पृथ्वी आदि भूत नहीं हैं। पुन: "पृथ्वी देवता आपो देवता" ।
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