Book Title: Enjoy Jainism
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: K P Sanghvi Group

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Page 36
________________ 26. श्रमण की साधना उत्कृष्ट साधना होती है। उसके जीवन में निरहंकार, निर्ममत्व, नम्रता और प्राणी मात्र के प्रति समभाव की भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती हैं। वह लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, प्रतिक्षण-प्रतिपल राग-द्वेष से दूर रहकर आत्मभाव की साधना करता है। जैन श्रमण के लिये पंच महाव्रत का विधान है। महाव्रत-अर्थात् महान व्रत । अहिंसा-जैसा तुम्हें जीवन प्रिय है, सबको भी उसी प्रकार प्रिय है। सब अपने जीवन से प्यार करते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अतः किसी से द्वेष-घृणा मत करो, किसी को सताओ मत, किसी को परिताप मत दो। सत्य-जीवन का मूल केन्द्र है। सत्य साक्षात् भगवान है। सत्य का अनादर करना, आत्मा का अनादर करना है। अस्तेय-जो वस्तु उसके स्वामी ने नही दी है, उस वस्तु का ग्रहण मत करो। ब्रह्मचर्य-वासनाओं पर संयम करना ब्रह्मचर्य है। आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम ब्रह्मचर्य है। मन, वचन एवं काया से वासना का उन्मूलन करना ही ब्रह्मचर्य है। अपरिग्रह-ममत्व का विसर्जन एवं समत्व की साधना का नाम अपरिग्रह है। श्रमण पांच महाव्रतों के साथ ही रात्रि भोजन का भी पूर्ण रूप से त्याग करता है। क्योंकि रात्रि भोजन हिंसादि दोषों का जनक है। श्रमण के लिये पांच समिति और तीन गुप्ति का पालन करना भी अनिवार्य है। समिति का अर्थ सम्यक् प्रवृत्ति है। गुप्ति का अर्थ है मन, वचन, काया का गोपन । अपने विशुद्ध आत्म तत्त्व की रक्षा के लिये अशुभ योगों को रोकना गुप्ति है। श्रमण धर्म इन्द्रभूति गौतम, you take special place HO my heart you take a special place in my heart ।। इच्चेइयाइं पंचमहव्वयाइं राइभोअणवेरमणछट्ठाई....... ।। brary.org.

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