Book Title: Ek aur Nilanjana Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 5
________________ उद्भावना .... . . .. 1 4 3 -4 . ... . " प्रश्न उठता है, आज के जीवन-सन्दर्भ में पुराकथा की क्या सार्थकता है ? क्या यह परम्परा की शाश्वती चैतन्यधारा में प्रतिष्ठित उदात्त और ऊर्ध्वमुखी मानव-प्रतिभा की महत्ता को ध्वस्त करने के लिए, आज के प्रतिवादी लेखक, विधा शाश्त भा है : उत्तर भ पर 'मुक्तिदूत' की एक चिमति पाठिका, 'शोलापुर कॉलेज' की प्राध्यापिका कुमारी मयूरी शाह के एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं : ___"...आपका 'मुक्तिदूत' मेरी टेबल पर सदैव रहता है। फुरसत के समय चाहे जब पन्ना उलटती हैं. और पढती ही चली जाती है। गत कई वर्षों में कितनी बार उसे पढ़ा होगा, कहना कठिन है। ...पता नहीं कैसे, बचपन से ही 'मुक्तिदूत' ने मेरे मन पर अमिट प्रभाव छोड़ा है। मेरा चैतन्य और जीवन उसी में से मानो आकार लेता चला गया है। इसमें तिल मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है।... "लगता है मुक्तिदूत' ही मेरा जीवन-साथी है। मेरे सबसे भीतरी अकेलेपन को उसने भरा है। "मुक्तिदूत' की अंजना और वसन्त टीदी ही तो मेरी शाश्वत सहेलियाँ हैं । जीवन में आनेवाली विपदाओं और समस्याओं का धीरज से सामना करने में, 'मुक्तिदूत' की अंजना ने ही तो मुझे सबसे अधिक शक्ति और सहारा दिया है।...मैं नृत्य करती हूँ निस्सन्देह । लेकिन कब : जब ‘मुक्तिदूत' का भावलोक बादल बनकर मेरे हृदय के आकाश में छा जाता है, तो मेरे भीतर की भयूरी आनन्द-विभोर होकर नाचने लगतीPage Navigation
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