Book Title: Ek aur Nilanjana Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 3
________________ I मनुष्य को हो चुका है। उसे प्रतीति हो चुकी है कि राजनीति का लक्ष्य और जो कुछ भी हो, यह तो नहीं हो पा रहा कि समाज सुखी हो और व्यक्ति अपने को सार्थक होता पाये। यह एक ऐतिहासिक साक्षात्कार है, जिसके साक्षात्कारी आम लोग हैं, पाहयकार पी अन्य विशेष वर्गों के लोग नहीं बाहरी दुनिया की इस नग्न और कुरूप वास्तविकता को ठीक आँखों आगे पाकर, मनुष्य आपोआप भीतर की ओर मुड़ चला है। वह अब अपनी सुरक्षा और शान्ति वास्तविक सुख की भूमि तक अपने ही भीतर खोजने को विवश हो गया है। आज का यह सर्वहारा मनुष्य अपनी आत्मा की तलाश में है। अब वह अपने ही अन्तरतम में कोई ऐसा निश्चल केन्द्र खोज रहा है, जिसके उजाले में वह अपनी सारी अन्तरबाह्य समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सके । मेरी ये पौराणिक कृतियाँ मानव इकाई की उसी सर्वथा स्वाधीन, भीतरी तलाश की प्रतीक रूपकात्मक परिणतियाँ हैं। अपनी भीतरी अन्तरिक्ष और अनुभव - संसार की उसी अन्वेषण यात्रा में से ये कथाएं उतरी हैं। इसी से देखता हूं कि आज का अभिनिवेशों और आरोपित धारणाओं से मुक्त सहज पाठक मेरी इन कृतियों की ओर मुग्ध मन से आकृष्ट हो रहा है। भीषण यथार्थ की त्रासदी को उलीचने वाले तथाकथित जनवादी और आम आदमी के साहित्य से वह अब जब गया है। उसे यह सब निरा पिष्टपेषण और दुहराव लगता है। उसकी आशा-आकांक्षा, स्वप्नों और आत्मिक पुकार का अचूक उत्तर उसे इस कृत्रिम और सतही साहित्य में नहीं मिल रहा। वह उस साहित्य की तलाश में है जो उसकी निपीड़ित, गुमशुदा चेतना को अन्तश्चेतना के मौलिक जीवन स्त्रोतों से जोड़ सके । बाहरी सामुदायिक प्रयत्नों के अनिश्चित और अविश्वसनीय कूटचक्रों से उसकी चेतना को उबारकर जो उसे अपने ही भीतर स्वाधीन रूप से जीने को कोई अचूक ठौर, आधार और सहारा दें सके । मेरे पास आने वाले मेरे पाठकों के अनगिनत पत्रों से मुझे बारम्बार केवल यही प्रमाण मिला है कि मेरी इन मिथकीय कृतियों से उन्हें जीवन ВPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 156