Book Title: Ek aur Nilanjana Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 2
________________ द्वितीय संस्करण पर 'एक और नीलांजना' को निकले अभी परे दो वर्ष भी नहीं हुए कि उस वह द्वितीय संस्करण आपके हाथ में है । 'आम आदमी' और 'भोगा हुआ यथार्थ' की नारे बुलन्दी के आलम में इन पुराकथाओं के खो जाने का खतरा ही अधिक था। मगर हक़ीक़त यह है कि आज के भीषण यथार्थ का प्रतिक्षण भुक्तभोगी आप आदमी ही इन कथाओं का सर्वोपरि पाठक है और उसी पाठक वर्ग की माँग पर यह दूसरा संस्करण इतनी जल्दी सम्भव हुआ है। स्थापित उच्चस्तरीय कहलाती हमारी समीक्षा के मानदण्ड तो इतने अवास्तविक घिसे-पिटे और मोधरे हो चुके हैं कि वे आम आदमी के यथार्थ जीवन, अनुभव संस्कार और समझ से बहुत दूर पड़ गये हैं । आम आदमी को तो यह पता तक नहीं, उसकी चेतना और पुकार की कैसी छद्म, अलगाववादी, गलत और भ्रामक तसवीर साहित्य में पेश की जा रही है । पौराणिक रोमांस मुक्तिदूत', प्रस्तुत पुराकथा-संग्रह 'एक और नीलांजना' और उसके उपरान्त 'अनुत्तर योगी तीर्थंकर महावीर', सर्वसाधारण जागृत पाठक से लगाकर उच्चस्तरीय प्रबुद्ध भारतीय पाठक तक की चेतना में इतनी गहराई से व्यापते चले जा रहे हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। इसका कारण यह है कि बाह्य व्यवस्थागत सतही क्रान्ति इतनी अनिश्चित और विफल सिद्ध हो चुकी हैं कि मनुष्य उस ओर से निराश हो आया है। वह उसे अविश्वसनीय लगती है; उसमें उसे अब अपनी मुक्ति की सूरत और सम्भावना नहीं दिखाई पड़ती। हर वाद, दल या राजसत्ता जिस इतिहास- व्यापी दुश्चक्र में फँसी है, उसका एक अवचेतनिक अहसास और साक्षात्कार 5 3Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 156