Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 6
________________ है। तब वह भरत-नाट्यम् होता है या और कोई नृत्य-प्रकार, मुझे नहीं मालूम |... "इसी प्रकार 'तीर्थंकर' मासिक में प्रकाशित आपकी कथाओं ने मेरे जीवन में कितना गहरा आध्यात्मिक रस सींचा है, कितनी आत्मिक शक्ति मुझे दी है, कह नहीं सकती। अब आपके उपन्यास 'अनुत्तर योगी : तीर्थकर महावीर' की यड़ी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रही हूँ। मुझे निश्चित प्रतीति है कि आपका यह ग्रन्थ संसार-भर के साहित्य में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगा। वह अनन्त काल रहेगा। एक अज्ञात बहन की शुभेच्छा में यदि कोई शक्ति है, तो वह सदा मेरे भाई के पीछे खड़ी है, और झूठ नहीं होगी...।" ___बहन मयूरी का यह पत्र उन सैकड़ों पत्रों का प्रतिनिधि है, जो मुझे 'मुक्तिदूत' पर, और 'तीर्थंकर' मासिक में प्रस्तुत कथाओं के प्रकाशन काल में मुझे मिलते रहे हैं। हजारों पाटकों को शक्ति और सम्बल देनेवाली, उनकी चेतना और जीवन को बदल देनेवाली, साहित्य की इस ऊध्वौंन्मेषिनी, निर्मात, रूपान्तरकारी शक्ति का क्या कोई मूल्य नहीं ? क्या आज की जलती वास्तविकता का महज ज्वलन्त आलेखन ही साहित्य का एक मात्र 'फंक्शन' (कर्तृत्व) है। सीमित देह-मन की अज्ञानिनी भूमिका पर सदा घटित हो रही, जीवन की ट्रैजेंडी, विषमता और कुरूपता को, एक 'हॉण्टिग' सर्जनात्मक गुणवत्ता से नग्न करना ही, क्या साहित्य की एकमेव उपलब्धि है ? क्या अन्तिम प्रश्न-चिहून औकने और समस्याओं के जंगल खड़े कर देने पर ही साहित्य समाप्त है ? क्या आत्म-द्रोह, लक्ष्यहीन विद्रोह, नारावुलन्दी और पतन, पराजय, कुण्ठा की कलात्मक उलटबाँसियों से आगे साहित्य नहीं जाता ? कोई साहित्य यदि लक्ष-लक्ष मानब आत्माओं को संघर्ष करने की ताकत दे, उनके चिर निपीड़क प्रश्नों, समस्याओं और उलझनों का समाधान करे, उन्हें उबुद्ध करे, जीवन और मुक्ति की कोई अचूक नयी सह उनके लिए खोल दे, तो क्या उसका कोई मूल्य नहीं ? क्या वह घटिया साहित्य है ? क्या उसकी कोई उच्च सृजनात्मक और कलात्मक उपलब्धि

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