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धर्म : कितना महंगा कितना सस्ता?
आज हम महंगाई के युग में जी रहे हैं। सुना है, एक युग था जो बहुत सस्ता था। आज जीवन की सारी यात्रा बहुत महंगी हो गई है और धर्म भी हमें महंगा या सस्ता दीखने लगा है। आज तो आदमी धर्म को भी पैसों के बटखरों से तौलने लग गया है। आचार्य भिक्षु ने इस विषय में एक सूत्र दिया था-धर्म त्याग में है, भोग में नहीं, धर्म अमूल्य है, इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। त्याग न सस्ता होता है और न ही भोग महंगा। पूछा गया-धर्म मोल मिलता है या नहीं? उत्तर में कहा गया-जो मोल में मिले वह धर्म नहीं, अधर्म है। तात्पर्य यह है कि धर्म का कोई मूल्य नहीं होता।
प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण अर्थ के साथ जुड़ा है। बल्कि यह कहें कि जीवन की सारी यात्रा ही अर्थ पर निर्भर है। समाज का सारा विकास अर्थ-सापेक्ष होता है। मार्क्स ने समाज का अध्ययन अर्थ के उतार-चढ़ाव के आधार पर ही किया था। अर्थ के उतार-चढ़ाव के आधार पर समाज बनता है, बिगड़ता है। बहुत सारी घटनाएं अर्थ के साथ जुड़ी हुई होती हैं, इसलिए आदमी धर्म को सस्ते और महंगे रूप में मीमांसित करे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रश्न है-मूल्य का। मूल्य निरपेक्ष
धर्म : कितना महंगा कितना सस्ता? : १
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