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प्रार्थना स्वयं मंजिल
बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ अपनी ही चिंता करना। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का दायित्व नहीं है। अगर तुम उत्तरदायी हो, तो सिर्फ अपने लिए। अगर अस्तित्व तुमसे पूछेगा, तो सिर्फ तुम्हारे लिए। तुम्हें जो जीवन का अवसर मिला है, उस अवसर में तुमने क्या कमाया, क्या गंवाया? तुम्हें जो जीवन के क्षण मिले, उन्हें तुमने खाली ही फेंक दिया या जीवन के अमरस से भर लिया? तुम्हारे जो कदम पड़े जीवन की राह पर, वे मंजिल की तरफ पड़े या मंजिल से दूर गए? तुमसे और कुछ भी नहीं पूछा जा सकता, तुम किसी और के लिए जिम्मेवार भी नहीं हो। अपनी ही जिम्मेवारी पर्याप्त है।
'दूसरों के दोष पर ध्यान न दे।'
और ध्यान रखना, जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है। ध्यान तुम या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हो, या दूसरों के दोषों की तरफ दे सकते हो, दोनों एक साथ न चलेगा। क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है। जब तुम दूसरे पर ध्यान देते हो, तो तुम अपने को भूल जाते हो। तुम छाया में पड़ जाते हो। ___ और एक समझ लेने की बात है, कि जब तुम दूसरों के दोष देखोगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे तुमसे ज्यादा पापी हैं, तुमसे ज्यादा बुरे हैं, तुमसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हं, दूसरे गलत हैं। बिना ठीक हुए अगर तुम ठीक होने का मजा लेना चाहते हो, तो दूसरों के दोष गिनना। और जब तुम दूसरों के दोष गिनोगे तो तुम स्वभावतः उन्हें बड़ा करके गिनोगे। तुम एक यंत्र बन जाते हो, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती है।
और जो दूसरे के दोष बड़े करके देखता है, वह अपने दोष या तो छोटे करके देखता है, या देखता ही नहीं। अगर तुमसे कोई भूल होती है, तो तुम कहते हो मजबूरी • थी। वही भूल दूसरे से होती है तो तुम कहते हो पाप। अगर तुम भूखे थे और तुमने
चोरी कर ली, तो तुम कहते हो, मैं करता क्या, भूख बड़ी थी! लेकिन दूसरा अगर भूख में चोरी कर लेता है, तो चोरी है। तो भूख का तुम्हें स्मरण भी नहीं आता।
जो तुम करते हो, उसके लिए तुम तर्क खोज लेते हो। जो दूसरा करता है, उसके लिए तुम कभी कोई तर्क नहीं खोजते। तो धीरे-धीरे दूसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और तुम्हारे दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दूसरे के दोष तो आकाश छूने लगते हैं-गगनचुंबी हो जाते हैं—तुम्हारे दोष तिरोहित हो जाते हैं। तुम बिना अच्छे हए अच्छे होने का मजा लेने लगते हो। यही तो तथाकथित धार्मिक की दुर्भाग्य की अवस्था है।
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