Book Title: Dhammapada 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 256
________________ प्रेम की आखिरी मंजिल : बुद्धों से प्रेम पर पट्टियां बांधी हुई हैं। इसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता। जब भी यह जरा ठहरा या रुका कि मैंने हांका। पर उस तार्किक ने कहा कि तुम तो पीठ किये बैठे हो उसकी तरफ । पीछे चल रहा है कोल्हू, तुम्हें पता कैसे चलता है ? उसने कहा, आप देखते नहीं बैल के गले में घंटी बांधी हुई है? जब तक बजती रहती है, मैं समझता हूं चल रहा है। जब रुक जाती है, उठकर मैं हांक देता हूं। इसको पता नहीं चल पाता। उस तार्किक ने कहा, अब एक सवाल और । क्या यह बैल खड़े होकर गर्दन नहीं हिला सकता है ? उस तेल वाले ने कहा, जरा धीरे-धीरे बोलें। कहीं बैल न सुन ले। तुम जरा अपनी जिंदगी तो गौर से देखो। न कोई हांक रहा है, मगर तुम 'चले जा रहे हो। आंख बंद है। गले में खुद ही घंटी बांध ली है। वह भी किसी और ने बांधी, ऐसा नहीं। हालांकि तुम कहते यही हो । पति कहता है, पत्नी ने बांध दी चलना पड़ता है। बेटा कहता है, बाप ने बांध दी है । बाप कहता है, बच्चों ने बांध दी है। कौन किसके लिए घंटी बांध रहा है! कोई किसी के लिए नहीं बांध रहा है। बिना घंटी के तुम्हें ही अच्छा नहीं लगता। तुमने घंटी को श्रृंगार समझा है। आंख पर पट्टियां हैं, घंटी बंधी है, चले जा रहे हो। कहां पहुंचोगे ? इतने दिन चले, कहां पहुंचे ? मंजिल कुछ तो करीब आई होती ! 1 लेकिन जब भी तुम्हें कोई चौंकाता है, तुम कहते हो, धीरे बोलो। जोर से मत बोल देना, कहीं हमारी समझ में ही न आ जाए। तुम ऐसे लोगों से बचते हो, किनारा काटते हो, जो जोर से बोल दें। संतों के पास लोग जाते नहीं । और अगर जाते हैं, तो ऐसे ही संतों के पास जाते हैं जो तुम्हारी आंखों पर और पट्टियां बंधवा दें। और तुम्हारी घंटी पर और रंग- पालिश कर दें । न बज रही हो तो और बजने की व्यवस्था बता दें। ऐसे संतों के पास जाते हैं कि तुम्हारे पैर अगर शिथिल हो रहे हों और बैठने की घड़ी करीब आ रही हो, तो पीछे से हांक दें कि चलो, बैठने से कहीं कोई पहुंचा है! कुछ करो। कर्मठ बनो। परमात्मा ने भेजा है तो कुछ करके दिखाओ। थोड़ा समझना । जीवन की गहनतम बातें करने से नहीं मिलतीं होने से मिलती हैं। करना तो ऊपर-ऊपर है, पानी पर उठी लहरें है। होना है गहराई। अच्छा ही हुआ, लेकिन व्याख्या गलत हो रही है। प्रश्न है, 'मेरी हालत त्रिशंकु की हो गई है।' एकदम अच्छा हुआ। शुभ हुआ। धन्यवाद दो परमात्मा को । लेकिन शब्द से लगता है कि शिकायत है, शिकवा है। क्योंकि तुम्हें लग रहा है, यह तो कहीं के न रहे। पीछे लौट नहीं सकते। जरूरत क्या है लौटने की पीछे ? लौट सकते तो क्या मिलता ? पीछे से तो होकर ही आ रहे हो। कुछ मिलना होता तो मिल ही गया होता। हाथ तुम्हारे खाली हैं और पीछे लौटना है ! जिस रास्ते से गुजर चुके, सिवाय धूल कुछ भी नहीं लाए हो साथ, फिर लौटकर जाना है ? तुम कहोगे, चलो छोड़ो, पीछे नहीं आगे तो जाने दो। मगर यह रास्ता वही है; 237

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