Book Title: Dhammapada 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 257
________________ एस धम्मो सनंतनो जो पीछे की तरफ फैला है, वही आगे की तरफ फैला है। ये एक ही रास्ते की दो दिशाएं हैं। तुम जिस रास्ते पर पीछे चलते आ रहे हो, उसी पर तो आगे जाओगे न । उसी की श्रृंखला होगी। उसी का सिलसिला होगा । अब तक क्या मिला ? पचास साल की उम्र हो गई, अब बीस साल और इसी रास्ते पर चलोगे, क्या मिलेगा? तुम कहोगे, चलो यह भी छोड़ो, कोई दूसरा रास्ता बता दो। मगर रास्ता तुम चाहते हो। क्योंकि चलना तुम्हारी आदत हो गई है। दौड़ने की विक्षिप्तता तुम पर सवार हो गई है। रुक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते, दो घड़ी बैठ नहीं सकते । क्यों ? क्योंकि जब भी तुम रुकते हो, तभी तुम्हें जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। जब भी तुम ठहरते हो, खाली क्षण मिलता है, तभी तुम्हें लगता है यह तो शून्य है। कुछ भी मैंने कमाया नहीं। तभी तुम कंप जाते हो । एक संताप पकड़ लेता है। एक अस्तित्वगत खाई में गिरने लगते हो। उससे बचने के लिए फिर तुम काम संलग्न हो जाते हो। कुछ भी करने में लग जाते हो । रेडियो खोलो, अखबार पढ़ो, मित्र के घर चले जाओ, पत्नी से झगड़ लो। कुछ भी बेहूदा काम करने लगो । एक गेंद खरीद लाओ, बीच में रस्सी बांध लो, इससे उस तरफ फेंको, उस तरफ से इस तरफ फेंको। लोग कहते हैं, फुटबाल खेल रहे हैं। कोई कहता है, वालीबाल खेल रहे हैं। और लाखों लोग देखने भी इकट्ठे होते हैं। खेलने वाले तो नासमझ हैं, समझ में आया। कम से कम खेल रहे हैं। लेकिन लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं । मारपीट हो जाती है। एक गेंद को इस तरफ से उस तरफ करते हो, शर्म नहीं आती। मगर सारी जिंदगी ऐसी है। कुछ भी करने को बहाना मिल जाए। ताश फेंकते रहते हैं, ताश बिखेरते रहते हैं । शतरंज बिछा लेते हैं। जिंदगी में तलवार चलाना जरा महंगा धंधा है। घोड़े वगैरह रखना भी जरा मुश्किल है। हाथी तो अब कौन पाले ? शतरंज बिछा लेते हो। हाथी-घोड़े चलाते हो। और ऐसे तल्लीन हो जाते हो जैसे सारा जीवन दांव पर लगा है। तुम अपने को कितनी भांति धोखे देते हो । बहुत हुआ। अब जागो। और जागने का एक ही उपाय है कि तुम थोड़ी देर को रोज खाली बैठने लगो। कुछ भी मत करो। करना ही तुम्हारा संसार है। न करना ही तुम्हारा निर्वाण बनेगा। कुछ देर को खाली बैठने लगो । घड़ी दो घड़ी ऐसे हो जाओ जैसे हो ही नहीं। एक शून्य सन्नाटा छा जाए। श्वास चले, चलती रहे। लेकिन कृत्य की कोई आसपास भनक न रह जाए। तुम बस चुपचाप बैठे रहो। धीरे-धीरे— शुरू तो बड़ी बेचैनी होगी, बड़ी तलफ पकड़ेगी कि कुछ भी कर गुजरो, क्या बैठे यहां समय खराब कर कहे हो - लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि जीवन की तरंगें शांत होती जाती हैं; भीतर के द्वार खुलते हैं। मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं, चुप बैठ जाओ। वे कहते हैं, यह 238

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