Book Title: Dhammapada 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 205
________________ एस धम्मो सनंतनो आती है। दृश्य के साथ जो अदृश्य को बांधा है, प्रतीकों के साथ उसे रख दिया है जिसका कोई प्रतीक नहीं, शब्दों की पोटलियों में शून्य को सम्हाला है। अगर बुद्धि से सुना, पोटली हाथ लग जाएगी, पोटली के भीतर जो था वह खो जाएगा। उसी के लिए पोटली का उपयोग था। कंटेंट खो जाएगा। विषयवस्तु खो जाएगी। कंटेनर, खाली डब्बा हाथ लग जाएगा। तब बाढ़ की सी स्थिति मालूम पड़ेगी। सुनो, सोचो मत। सुनो, मानने न मानने की जरूरत ही नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं, सुनने से ही मुक्ति हो सकती है, अगर तुम मानने, न मानने के जाल को खड़ा न करो। क्योंकि जैसे ही तुम्हारे मन में सवाल उठा कि ठीक है, मानने योग्य है: या सवाल उठा ठीक नहीं है, मानने योग्य नहीं है। जब तुम कहते हो ठीक है, मानने योग्य है, तो तुम क्या कर रहे हो? तुम यह कह रहे हो, मेरे अतीत से मेल खाती है बात। मेरे विचारों से तालमेल पड़ता है। मेरी अतीत की श्रद्धा, मान्यताएं, सिद्धांत, शास्त्र, उनके अनुकूल है। तो तुमने मुझे कहां सुना? तुमने अपने अतीत को ही मुझसे पुनः पुनः सिद्ध कर लिया। यहां मैं तुम्हारे अतीत को सही सिद्ध करने के लिए नहीं हूं। तो फिर बाढ़ कैसे आएगी? जिसको बहाना था, बाढ़ जिसे ले जाती, वह और मजबूत हो गया। या तुमने कहा कि नहीं, बात जमती नहीं। अपने शास्त्र के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल है। अपने सिद्धांतों के साथ नहीं बैठता। तो तुमने अपने को तोड़ ही लिया अलग। जोड़ते हो तो बुद्धि से, तोड़ते हो तो बुद्धि से। यहां कुछ बात ही और हो रही है। न जोड़ने का सवाल है, न तोड़ने का सवाल है। अगर बुद्धि बीच से हट जाए, तो जोड़े कौन, तोड़े कौन? एक ही बचता है, जुड़े कौन, टूटे कौन? अगर बुद्धि हट जाए, तो तुम पाओगे कि मैं तुम्हारे भीतर वहां हूं, तुम मेरे भीतर यहां हो। तब मैं कुछ ऐसा नहीं कह रहा हूं, जो मेरा है। मेरा कुछ भी नहीं है। कबीर ने कहा है, मेरा मुझमें कुछ नहीं। __जो मैं कह रहा हूं उसमें मेरा कुछ भी नहीं है। जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारा ही है। लेकिन तुमने अपना नहीं सुना है, मैंने अपना सुन लिया है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं जब तुम पहचानोगे, तो तुम पाओगे यह तुम्हारी ही आवाज थी। यह तुम्हारा ही गीत था जो मैंने गुनगुनाया। यहां कोई शास्त्रों की, सिद्धांतों की बात नहीं हो रही है, ये सब तो बहाने हैं, खूटियां हैं। यहां तो शास्त्रों, सिद्धांतों के बहाने कुछ दूसरा ही खेल हो रहा है। अगर तुमने शब्द ही सुने और उन पर ही विचार किया-ठीक है या गलत; माने कि न मानें; अपने अनुकूल पड़ता है कि नहीं तो तुम मुझसे चूक गए। और जो मुझसे चूका, वह खुद से भी चूका। तुम अपने से ही चूक गए। अब तुम पूछते हो...अगर तुमने अपना प्रश्न ही गौर से देखा होता, तो समझ में आ जाता। 'आप अपने प्रवचनों में प्रतिदिन ऐसी तात्कालिकता पैदा कर देते हैं कि 186

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