Book Title: Dhammapada 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 236
________________ जागरण का तेल + प्रेम की बाती = परमात्मा का प्रकाश कर रहे हो, तो ही कीचड़ का कमल भी ऊपर की तरफ तुम्हारे साथ जा सकेगा। तुम कीचड़ में ही डुबकी लगाकर मत बैठ जाना, नहीं तो कमल किसके सहारे जाएगा ! तुम्हीं को तो कमल की डंडी बनना है। पैर रहें कीचड़ में, सिर रहे आकाश में, तो तुम कीचड़ से कमल को बाहर निकाल पाओगे। पैर रहें जमीन पर, सिर रहे आकाश में; चलना जमीन पर, उड़ना परमात्मा में; और इन दोनों के बीच अगर तालमेल बना लो, तो तुम्हारे भीतर एक अनूठा कमल खिलेगा । ' जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर खिले, वैसे ही कूड़े के समान अंधे सामान्यजनों के अपनी प्रज्ञा से शोभित होता है । ' पर कोई सुगंधित सुंदर कमल बीच सम्यक संबुद्ध का श्रावक बुद्ध अपने शिष्य को श्रावक कहते हैं। श्रावक का अर्थ है, जिसने बुद्ध को सुना, श्रवण किया। बुद्ध को तो बहुत लोगों ने सुना, सभी श्रावक नहीं हैं। कान से ही जिन्होंने सुना, वे श्रावक नहीं हैं। जिन्होंने प्राण से सुना, वे श्रावक हैं । जिन्होंने ऐसे सुना कि सुनने में ही क्रांति घटित हो गई, जिन्होंने ऐसे सुना कि बुद्ध का सत्य उनका सत्य हो गया। श्रद्धा के कारण नहीं, सुनने की तीव्रता और गहनता के कारण। श्रद्धा के कारण नहीं, मान लिया ऐसा नहीं, पर सुना इतने प्राणपण से, सुना इतनी परिपूर्णता से, सुना अपने को पूरा खोलकर कि बुद्ध के शब्द केवल शब्द ही न रहे, निःशब्द भी उनमें चला आया। बुद्ध के शब्द ही भीतर न आए, उन शब्दों में लिपटी बुद्धत्व की गंध भी भीतर आ गई। और ध्यान रखना, जब बुद्ध बोलते हैं तब शब्द तो वही होते हैं जो तुम बोलते हो, लेकिन जमीन-आसमान का फर्क है। शब्द तो वही होते हैं, लेकिन बुद्ध में डूबकर आते हैं, सराबोर होते हैं बुद्धत्व में, उन शब्दों में से बुद्धत्व झरता है। अगर तुम बुद्ध के शब्दों को अपने प्राण में जगह दी, तो उनके साथ ही साथ बुद्धत्व का बीज भी तुम्हारे भीतर आरोपित हो जाता है । बुद्ध ने उनको श्रावक कहा है जिन्होंने ऐसे सुना । और बुद्ध कहते हैं, सम्यक संबुद्धों का श्रावक सामान्यजनों के कूड़े-करकट की भीड़ में कमल की तरह खिल जाता है। अलग हो जाता है। रहता संसार में है, फिर भी पार हो जाता है । कमल होता कीचड़ में है, फिर भी दूर हो जाता है । उठता जाता है दूर । भिन्न हो जाता है। कमल और कीचड़, कितना फासला है ! फिर भी कमल कीचड़ से ही आता है। तुम्हारे बीच ही अगर किसी ने बुद्धत्व को अपने प्राणों में आरोपित कर लिया, बुद्ध के बीज को अपने भीतर जाने दिया, अपने हृदय में जगह दी, सींचा, पाला, पोसा, सुरक्षा की, तो तुम्हारे ठीक बीच बाजार के घूरे पर, ढेर पर उसका कमल खिल आएगा। एक ही बात खयाल रखनी जरूरी है, ऊपर की तरफ जाने को मत भूलना। नीचे 217

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